पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३७

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रीति काल ३३७ प्रेम का वर्णन करके यद्यपि भक्त और भगवान् के संबंध की व्यंजना की गई थी, पर उस तथ्य को समझकर ग्रहण कर सकना सयका काम नहीं था। इसके अतिरिक्त राजदरबारों में हिंदी कविता को अधिका- धिक श्राश्रय मिलने के कारण कृष्ण-भक्ति की कविता को श्रधापतित होकर वासनामय उद्गारों में परिणत हो जाने का अधिक अवसर मिला। तत्कालीन नरपतियों की विलास-चेष्टाओं की परितृप्ति और अनु- मोदन के लिये कृष्ण एवं गोपियों की नोट में हिंदी के कवियों ने कलपित प्रेम की शत सहन उद्भावनाएँ कीं। जनता में भी कृष्ण-भक्ति के नाम पर मनमानी लीलाएँ करने की प्रवृत्ति बढ़ी, जैसा कि वल्लभाचार्यजी की परंपरा का वर्णन करते हुए ऊपर कहा जा चुका है। इसका परिणाम यह हुआ कि राजाओं से पुरस्कार पाने तथा जनता द्वारा समादृत होने के कारण रीति काल की कविता श्रृंगाररसमयी हो गई और अन्य प्रकार की कविताएँ उसके सामने दब सी गई। परंतु इसका यह श्राशय कदापि नहीं है कि श्रृंगाररस सर्वथा निंद्य ही है, अथवा उस काल के सभी कवियों में प्रेम और सौंदर्य की निसर्गसिद्ध पवित्र उद्भावना करने की शक्ति ही नहीं रह गई थी। भंगाररस के मुक्तक पद्य यद्यपि अधिकतर अलंकारों और नायिकाओं के उदाहरण-स्वरूप ही लिखे गए और यद्यपि लिखने का लक्ष्य भी अधि- कतर श्राश्रयदाताओं को प्रसन्न करना था, तथापि कुछ कवियों की कृति में शुद्ध प्रेम के ऐसे सरस छंद मिलते हैं, ऐसे सौदर्य की पवित्र विवृति 'पाई जाती है कि सहसा यह चिश्वास नहीं होता कि वे कवि शुद्ध श्रांत- रिक प्रेरणा के अतिरिक्त अन्य किसी उद्देश से कविता करते थे। यह ठीक है कि अधिकांश कवियों ने सौंदर्य को केवल उद्दीपन मानकर नायक नायिका के रति-भाव की व्यंजना की है; पर कुछ कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने रीति के प्रतिबंधों से बाहर जाकर स्वकीय सुंदर रीति से सौदर्य की यह सृष्टि की है जो मनोमुग्धकारिणी है। भक्ति काल के कवियों में कवीरश्रादि संतों की भाषा विलकुल शिथिल और अव्युत्पन्न थी। प्रेमगाथाकारों की भाषा अवध की ग्राम- - भाषा थी जिसमें साहित्यिकता का पुट प्रायः नहीं के घरावर था। कृष्ण-भक्त कवियों में सूर की भापा ब्रज की चलती भाषा थी और नंददास तथा हितहरिवंश ने संस्कृत के सम्मिश्रण से ब्रजभापा को साहित्यिक भापा बनाने का प्रयास किया था। एक महात्मा तुलसीदास ही ऐसे थे जो हिंदी की संपूर्ण शक्ति को लेकर चिकसित हुए और व्रज तथा अवधी पर समान अधिकार रखते ४३