पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३२३

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कृष्णभक्ति शाखा ३२५ यह श्राचरण बड़ा ही रमणीय है। उसमें कहीं से अस्वाभाविकता नहीं पा सकी। कोई कृष्ण की मुरली चुराती, कोई उन्हें अयोर लगाती और कोई चोली पहनाती है। कृष्ण भी किसी की वेणी गूंथते, किसी की आँखें मूंद लेते और किसी को कदव के तले बंशी बजाकर सुनाते • हैं। एकाध बार उन्हें लजित करने की इच्छा से चीरहरण भी करते हैं। 'गोपी-कृष्ण की यह संयोगलीला भकों का सर्वस्व है। संयोग के उपरांत वियोग होता है। कृष्ण शृंदावन छोड़कर मथुरा चले जाते है। वहाँ राजकार्यों में संलग्न हो जाने के कारण प्यारी गोपियों को भूल से जाते हैं। गोपिकाएँ घिरह में व्याकुल नित्य प्रति उनके थाने की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं ! कृपा नहीं पाते। गोपियों के भाग्य का यह व्यंग्य उन्हें कुछ देर के लिये विचलित कर देता है। उद्धव उन्हें शान समझाने आते हैं, पर उनके शानोपदेश को वे स्वीकार नहीं करतीं। कृष्ण की साकार अनंत सौंदर्यशालिनी मूर्ति उनके हृदय- पटल पर अमिट अंकित है। कृष्ण चाहे जहाँ रहे, वे उन्हें भूल नहीं सकतीं। यह अनंत प्रेम का दिव्य संदेश भक्तों के हृदय का दृढ़ अवलंय है। __इसी कथानक के चीव कृष्ण के लोक-रक्षक स्वरूप की व्यंजना फरते हुए उनमें असीम शक्ति की प्रतिष्ठा की गई है। थोड़ी आयु में ही वे पूतना जैसी महाकाय राक्षसी का वध कर डालते हैं। आगे चल- कर केशी, वकासुर श्रादि दैत्यों के वध और कालिय-दमन श्रादि प्रसंगों को लाकर कृपण के यल और वीरता का प्रदर्शन किया गया है। परंत हमको यह स्वीकार करना पड़ता है कि सूरदास ने ऐसे वर्णनों की ओर यथोचित ध्यान नहीं दिया है। सूरदास के कृष्ण महाभारत के कृष्ण की भांति नीतिश और पराक्रमी नहीं है; वे केवल प्रेम के प्रतीक और सौंदर्य की मूर्ति हैं। कृपा के शील का भी थोड़ा-बहुत अाभास सूर ने दिया है। माता यशोदा जव उन्हें दंड देती हैं, तब वे रोते कलपते हुए उसे झेलते हैं। इसी प्रकार जय गोचारण के समय उनके लिये छाक भाती है, तब वे अकेले ही नहीं खाते, सबको बांटकर खाते हैं और कभी किसी का जूठा लेकर भी खा लेते हैं। बड़े भाई बलदेव के प्रति भी उनका सम्मान भाव परावर बना रहता है। यह सब होते हुए भी यह कहना पड़ता है कि सूरदास में कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति की ही प्रधानता है, रामचरित- " मानस की भांति उसमें लोकादर्शी की ओर ध्यान नहीं दिया गया । सूरदास ने फुटकर पदों में राम-कथा भी कही है, पर वह वैसी ही बन पड़ी है, जैसे तुलसी की कृष्ण-गीतावली। इसके अतिरिक्त