पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१०

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३१२ । हिंदी साहित्य स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर जायसी और सूर ने क्रमशः नवधी और ब्रज- भाषा में ही काव्यरचना की थी वहाँ गोस्वामीजी का इन दोनों भापाओं पर समान अधिकार हुना और उन दोनों में संस्कृत के समावेश से नवीन चमत्कार उत्पन्न कर देने की क्षमता तो उनकी अपनी है। गोस्वामी तुलसीदास के विभिन्न ग्रंथों में जिंस प्रकार भाषा-भेद है, उसी प्रकार छंद-भेद भी है। रामचरितमानस में उन्होंने जायसी की तरह दोहे-चौपाइयों का क्रम रखा है, परंतु साथ ही हरिगीतिका श्रादि लंवे तथा सोरठा श्रादि छोटे छंदों का भी वीच बीच में व्यवहार कर उन्होंने छंद-परिवर्तन की ओर ध्यान रखा है। रामचरित के लंका- कांड में जो युद्ध-वर्णन है, उसमें चंद श्रादि चीर कवियों के छंद भी लाए गए हैं। कवितावली में सवैया और कवित्त छंदों में कथा कही गई है जो भाटों की परंपरा के अनुसार है। कवितावली में राजा राम की राज्यश्री का जो विशद वर्णन है, उसके अनुकूल कवित्त छंद का व्यंव- हार उचित ही हुश्रा है। विनय-पत्रिका तथा गीतावली आदि में व्रज- भापा के सगुणोपासक संत महात्माओं के गीतों की प्रणालो स्वीकृत की गई है। गीत-काव्य का सृजन पाश्चात्य देशों में संगीत शास्त्र के अनुसार हुया है। वहाँ की लीरिक कविता श्रारंभ में वीणा के साथ गाई जाती थी। ठीक उसी प्रकार हिंदी के गीत काव्यों में भी संगीत के राग संगिनियों को ग्रहण किया गया है। दोहावली, बरवै रामायण आदि में तुलसीदासजी ने छोटे छंदों में नीति श्रादि के उपदेश दिए हैं अथवा अलंकारों की योजना के साथ फुटकर भावव्यंजना की है। सारांश यह कि गोस्वामीजी ने अनेक शैलियों में अपने ग्रंथों की रचना की है और श्रावश्यकतानुसार उनमें विविध छंदों का प्रयोग किया है। इस कार्य में गोस्वामीजी की सफलता विस्मयकारिणी है। हिंदी की जो व्यापक क्षमता और जो प्रचुर अभिव्यंजना-शक्ति उनकी रचनाओं में देख पड़ती है यह अभूतपूर्व है। उनकी रचनाओं से हिंदी में पूर्ण मौढ़ता की प्रतिष्ठा हुई। तुलसीदासजी के महत्त्व का ठीक ठीक अनुमान करने के लिये उनकी कृतियों की तीन प्रधान दृष्टियों से परीक्षा करनी पड़ेगी। भाषा उपसहार की दृष्टि से, साहित्योत्कर्ष को दृष्टि से और संस्कृति के संरक्षण तथा उत्कर्प-साधन की दृष्टि से। इन तीनों दृष्टियों से उन पर विचार करने का प्रयत्न ऊपर किया गया है, जिसके परिणाम स्वरूप हम यहां कुछ बातों का स्पष्टतः उल्लेख कर सकते हैं। हम यह कह सकते हैं कि गोस्वामीजी का व्रज और अवधी