पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२६१

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२६० , हिंदी साहित्य पृथ्वीनाथ-पृथ्वीनाथजी उन योगियों में सबसे अंतिम है जिनकी वाणी प्रसिद्ध है। ये कवीर के पीछे हुए थे। इन्होंने कवीर पना के उपदेशों पर चलने का उपदेश दिया है। इससे '- स्पष्ट है कि ये कबीर के पीछे हुए थे। कवीर का समय सोलहवीं शताब्दी है। श्रतएव पृथ्वीनाथजी का समय यदि सरहवीं शताब्दी मानें तो अनुचित न होगा। साध प्रकास जोग नाम का एक ग्रंथ इनका यनाया बताया जाता है। साधुओं की इन्होंने खूय महिमा गाई है और योग की रहनि पर अच्छा प्रकाश डाला है। पृथ्वीनाथजी के बाद योग काव्य की रचना बंद हो गई हो, सो • बात नहीं। परंतु हिंदी के श्राध्यात्मिक साहित्य-क्षेत्र में उसकी वह प्रधानता न रही जो उस समय तक थी। पृथ्वीनाथजी के पहले ही कवीर ने आध्यात्मिक साहित्य की धारा को एक नया चेग तथा रूप दे डाला था। यही नवीन रूप हिंदी साहित्य-जगत् में निर्गुण काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। इन दोनों धाराओं में जो अंतर है वह हम ऊपर प्रदर्शित कर चुके है। योग की अनेक वातें निर्गुण काव्य में श्रा गई है। किंतु इसके साथ साथ वैष्णव संप्रदाय तथा सूफी विचार प्रणाली से भी उसमें कुछ ग्रहण किया गया है। जिन लोगों का यह विचार है कि कबीर आदि संतों ने योग से घृणा दिखलाई है और उसका पहि- कार किया है, उन्होंने संत-विचार-धारा का अच्छी तरह अध्ययन नहीं किया है। कबीरपंथ में स्वीकृत वे जनश्र तियां, जिनके अनुसार कबीर और गोरसनाथ के बीच शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें गोरखनाथ की हार हुई थी, न ऐतिहासिक दृष्टि से सही है न तात्विक दृष्टि से। उनकी गढत सांप्रदायिक दंभ के कारण हुई जान पडती है। कवीर की निर्गुण शाखा चास्तव में योग का ही परिवर्तित रूप है जो सूफी, इस्लामी तथा वैष्णव मतों से भी प्रभावित हुई थी। कवीर ने 'वास्तन में योग का खंडन नहीं किया है।