पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२५७

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२५६ हिंदी साहित्य संन्यास-मार्ग की साधना की शिक्षा देते हैं। अहिंसा और स्वच्छाचरण का पाठ दोनों ही पढ़ाते हैं। योगांगों के निरूपण में गोरखनाथ प्रभृति हठयोगी प्राणायाम की पद्धति को प्रमुख स्थान देते हैं। शास्त्रों के श्रवण- कीर्तन के द्वारा प्राप्त होनेवाले वैराग्य का अधिक उल्लेख नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि इस हठयोगी नाथ-संप्रदाय के अनुयायी शास्त्रश और · पंडित न होकर साधक ही अधिक हुए। जड़ी-बूटी और मंत्रों का भी अभ्यास इसमें किया गया है परंतु एक ओर जहाँ रस या पधि को ही मुक्ति का हेतु माननेवाले 'रसेश्वर-संप्रदाय' से यह हठयोग भिन्न है वहाँ संसार के व्यापक और सार्वजनीन जीवन से निवृत्ति पाकर तटस्थ हो जाने से भी यह कुछ दूर ही रहा। इस दृष्टि से भी हठयोग मध्यमार्ग ही ठहरता है। कवीर के संप्रदाय में जड़ी-बूटी और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उनके जीवन-काल में संभवतः नहीं हुआ था, यद्यपि पीछे से कुछ ग्रहण अवश्य किया गया। गुरु गोरखनाथ ने हिंदी के ही द्वारा अपने योग-मार्ग के प्रसार का अनुष्ठान किया। उनके दिल की मस्ती सीधे गानों के रूप में व्यक्त हुई जिनमें कैवल्यानुभूति के श्रानंदोद्रेक के साथ साथ उन उपायों तथा क्रियाओं की भी महिमा गाई जिनके द्वारा उसकी प्राप्ति संभव हुई थी। • गोरखनाथ अपने ढंग के एक ही कवि नहीं हुए हैं। उनके साथ हिंदी साहित्य को एक धारा-विशेष का जन्म होता है जो लगातार • योग-धारा _ शताब्दियों तक चलती चली और संभवतः श्रव भी रुकी नहीं है। इस धारा का पूर्ण दर्शन कराने का श्रेय मेरे शिप्य डा० पीतांवरदत्त बड़थ्वाल को है जो गोरखनाथ का समय विक्रम के ग्यारहवे शतक में मानते हैं। श्री राहुल सांकृत्यायन तथा श्री काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि योग को यह धारा हिंदी-काट्यक्षेत्र में गोरखनाथ के काल के पहले ही से बहती चली आ रही है। वे सरह-पा अर्थात् सरोज-वज्र से इस धारा का प्रारंभ मानते हैं जिनका समय विक्र- मान्द के अासपास माना जाता है। परंतु मैं समझता हूँ कि ऐसा करने से • वे हिंदी के क्षेत्र को छोड़कर अपभ्रंश के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। उनकी रचनाओं में से चुन चुनकर जैसे उदाहरण दिए गए हैं वैसे अंश उनकी कविताओं में अधिक नहीं हैं। इसमें संदेह नहीं है कि हिंदी के चर्नमान रूपों का बनना उस समय प्रारंभ हो गया था, परंतु इतने ही के नाधार पर हम उनकी रचनाओं को हिंदी की नहीं मान सकते। यदि अपभ्रंश और हिंदी में भेद हो न मानें तो वात दूसरी है। परंतु भाषा-विकास के इतिहास में अलग अलग अवस्थाओं के अलग अलग नामकरण हुए