पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३५

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२३२ हिंदी साहित्य करनेवाले विग्रहराज चतुर्थ बड़े वीर क्षत्रिय नृपति थे और उन्होंने इस्लामी शक्ति के प्रतिकूल सफलतापूर्वक कई युद्ध किए थे। परंतु उनकी इस गाथा में उनके युद्धों श्रादि का वर्णन नहीं है। इसमें जैसलमेर की राजकन्या राजमती 'से उनके विवाह करने और विवाहोपरांत अपनी नवविवाहिता पत्नी को किसी बात से चिढ़कर उड़ीसा चले जाने का उल्लेख है। अनेक वर्षों के बाद राजमती के संदेश भेजने पर उनके लसम्मान लौटने और लौटकर अपने कुटुंबियों से श्नानंद- पूर्वक मिलने तथा फिर से राज्य-सिंहासन ग्रहण करने के साथ कथा का अंत हो जाता है। इस प्रेम-प्रसंग को वीर गीत स्वीकार करने में कुछ विद्वानों को संकोच होता है। उनका यह संकोच बहुत अंशों में ठोक भी है, परंतु स्मरण रखने की बात यह है कि वीर गीतों में चोरों की जीवनगाथाएँ नहीं होती, वरन् जीवन को किसी साधारण अथवा असाधारण घटना का चित्रण मात्र होता है। वे सदा वीररसात्मक ही नहीं हो सकते, क्योंकि वीरों का युद्ध से अभिन्न संबंध नहीं रहता, वीरों के हृदय में यद्यपि उत्साह सदा उपस्थित रहता है, परंतु इसका यह प्राशय नहीं है कि ये निरंतर युद्ध ही करते रहे। उनके जीवन में हृदय की कोमल वृत्तियों का प्रदर्शन भी हुश्रा करता है, और वीसलदेवरासो में ऐसी ही वृत्तियों का चित्रण किया गया है। यह बीसलदेवरासो की एक विशेषता है कि प्रेम-प्रधान होने पर भी उसे धीर गीत कहे जाने का गौरव मिला है। • अपने उल्लिखित संवतों के आधार पर तो यह चीसलदेव की सम- सामयिक रचना ठहरती है, पर अन्य वीर गीतों की भांति इसके भी अनेक मौखिक संस्करण हुए होंगे। इसके कथानक में भोज, माय, कालिदास श्रादि नाम ऐसे घुस गए हैं कि इस गाथा के वीसलदेव के जीवनकाल में उसके दरयारी फवि द्वारा रचे जाने में संदेह होने लगता है, परंतु इन अंशों को प्रक्षिप्त मान लेने से शेषांश को नाल्हरचित स्वीकार किया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने इसे चंद घरंदाई स्त पृथ्वीराजरासो ग्रंथ का ही एक खंड यतलाया है और इस दृष्टि से इसे स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में ग्रहण बालसंद नहीं किया है। परंतु यह बात ठीक नहीं जान पड़ती। पृथ्वीराजरासो तथा पाल्हखंड में सबसे प्रधान भेद यह है कि पहला ग्रंथ दिल्ली के अधिपति पृथ्वीराज के दर- वारी कधि का लिखा होने के कारण उसके कृत्यों को यहुत अधिक उत्कर्ष प्रदान करता है; परंतु श्रील्हखंड में यह बात नहीं पाई जाती।