पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२७ वीरगाथा काल "भापारासापुस्तकेस्य युद्धस्योक्तोस्ति विस्तरः २७" श्रतएव यदि चंद के विसरे हुए छंदों का संकलन, संपादन आदि किसी के राज्यकाल में हो सकता है तो वे दूसरे श्रमरसिंह नहीं, पहले ही अमरसिंह होंगे। संवत् १६४२ की लिसी पृथ्वीराजरासो की एक प्रति काशी नागरीप्रचारिणी सभा के संग्रह में है। इस संवत् तक तो प्रथम श्रमरसिंह गद्दी पर भी नहीं बैठे थे, उनके पिता स्वनामधन्य महाराणा प्रतापसिंह अकबर के साथ युद्ध करने में लगे हुए थे। इस युद्ध का अंत संवत् १६४३ में हुश्रा, जव कि महाराणा ने चित्तौरगढ़ और मंगलगढ़ को छोड़कर शेष मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया। इन सब बातों के वाधार पर क्या यह माना नहीं जा सकता है कि चंद नाम का कोई कवि था जिसने पृथ्वीराज की प्रशंसा में कविता की, पर यह विखर गई थी। श्रतएव पीछे से प्रथम महाराणा अमरसिंह के समय में किसी कवि ने इसका संग्रह किया और उसे घर्तमान पृथ्वीराजरासो का रूप दिया। इसमें जो मिन्न भिन्न 'समय' और कथानक दिए हैं वे प्राचीन रचना नहीं है वरन् राणा अमरसिंह के समय में जो किंवदंतियाँ प्रसिद्ध थीं उन्हों के आधार पर इस ग्रंथ का जीर्णोद्धार हुआ। श्रतएच इस ग्रंथ को पेति. हासिक घटनाओं का प्रमाण स्वरूप मानना उचित नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस समय जो पृथ्वीराजरासो वर्तमान है वह बहुत पीछे की रचना है। चंद के मूल छंदों का यदि कहीं कुछ पता लग सकता है तो यह संवत् १६४२ वाली प्रति से ही लग सकता है। उद्योग करने पर यह भी पता चल सकता है कि वर्तमान रूप में प्राप्य पृथ्वीराजरासो में प्रतिप्त अंश कितना है। तीसरे समय का अंतिम छंद यह है- पोडस गज उरद्ध राज ऊभी गवण तस । सझ समय चीतार पर कोनो पेसकस ।। देपत सँभरीनाथ हाथ छूटन हथ सारक । तीर कि गोरि बिछुहि तुहि असमान को तारक ॥ अघवीच नीच परते पहिल लोहाने लीनो भरपि । नट कला पेलि जनु फेरि उठि आनि हथ्थ पिथ्यह अरपि । हरपि राज पृथिराज कीन सूर सामत । बगसि ग्राम गजवाज अजानवाह दीनय नाम || ऐसा जान पड़ता है कि इसी एक छंद का विस्तार करके "लोहानो अजानवाहु समय" की रचना की गई है। पज्जून महुश्रा नामक समय का ३० वाँ दोहा इस प्रकार है-