पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२२५

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२२२ हिंदी साहित्य चिंता नहीं थी, जितनी अपने प्राश्रयदाताओं की प्रशंसा द्वारा स्वार्थ- साधन करने की थी। यही कारण है कि जयचंद जैसे नृपतियों को काल्पनिक वीर गाथाएँ रचनेवाले कवि तो हुए, पर सच्चे वीरों की पवित्र गाथाएँ उस काल में लिखी ही नहीं गई और यदि लिखी भी गई हों तो अब उनका कहीं पता नहीं है। इन राजाधित कवियों की रचनाओं में न तो इतिहाससम्मत घटनाओं का ही अधिक उल्लेख मिलता है और न उच्च प्रकार के युद्ध की साहित्यिक ... कवित्व का ही उन्मेष पाया जाता है। एक तो " उस युग की रचनाएँ श्रव अपने मूल रूप में मिलती प्रगति ही नहीं; और जो कुछ मिलती भी हैं, उनमें ऐति- हासिक तथ्यों से बहुत कुछ विभिन्नता पाई जाती है। जो कवि अपने अधिपतियों को प्रसन्न करने के लिये ही रचनाएँ करेगा उसे बहुत कुछ इतिवृत्त की अवहेलना करनी पड़ेगो, साथ ही उसकी कृतियों में हृदय के सच्चे भावों का प्रभाव होने के कारण उच्च कोटि के कवित्व का स्फुरण न हो सकेगा। जहाँ केवल प्रशंसा करना ही उद्देश रह जाता है, यहाँ इतिहास की ओर से दृष्टि हटा लेनी पड़ती है और नव- नवोन्मेपशालिनी प्रतिभा को एक संकीर्ण क्षेत्र में श्रावद्ध करना पड़ता है। इसी संकीर्ण क्षेत्र में यहती वहती काव्यधारा परंपरागत हो गई जिससे भाट चारणों की जीविका तो चलती रहो पर कविता के उच्च लक्ष्य का विस्मरण हो गया। पुरानी रचनाओं में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके और उसे नवीन रूप में सुनाकर राज-सम्मान पाने की जो कुप्रथा चारणों में चलो, उससे कविता तो लक्ष्यभ्रष्ट हो हो गई, साथ ही अनेक ऐतिहासिक विवरणों का लोप भी हो गया। ग्रंथों में क्षेपक इतने अधिक बढ़ चले कि वे मूल से भी अधिक हो गए और मूल का पता लगना भी असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया। यदि इस कुप्रथा का अंत हिंदी के भक्त कवियों की कृपा से न हो गया होता और कविता का संपर्क राजाश्रय से हटकर जनसमूह को हार्दिक वृत्ति से न हो जाता, तो अब तक हिंदी कविता की कितनी अधोगति हो गई होती, इसका सहज में अनुमान किया जा सकता है। इस युग के कवियों की रचनाओं में जहाँ तहाँ सचे राष्ट्रीय भावों की भी झलक देख पड़ती है। देशानुराग से प्रेरित होकर देश के शत्रुओं का सामना करने के लिये वे अपने श्राश्रयदाताओं को केवल अपनी वाणी द्वारा प्रोत्साहित ही नहीं करते थे, वरन् समय पड़ने पर स्वयं तलवार हाथ में लेकर मैदान में कूद पड़ते थे और इस प्रकार तलवार तथा कलम दोनों को चलाने की अपनी