पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२१५

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हिंदी साहित्य प्रचलित थीं। एक तो पदभजन की, जिसके शात श्रादि प्राचार्य जयदेव जी कहे जा सकते हैं और जिसके अधिक प्रचार का श्रेय तानसेन, उनके गुरु स्वामी हरिदास तथा हितहरिवंश जी को प्राप्त है। विद्यापति, मीरा, सूर, तुलसी श्रादि की कविता भी इसी प्रकार की है। इस दंग के सभी गायक वैष्णव हुए हैं अतएव इसे वैष्णय शैली कहना उपयुक्त जान पड़ता है। इन लोगों ने स्वरों का सौदर्य दिसाने की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे अधिकतर रसों और भावों की अभिव्यक्ति ही करते रहे। दूसरी प्रणाली संतों के गान की है। इन अनंत प्रेम के मतवालों ने, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों सम्मिलित है, बड़ी मस्ती से गाया है। मुसलमान संतों के इस गान के फन्चाली, सनमगनम श्रादि विभेद हुए और हिंदू संतों के गान "वानी" कहलाए। यहाँ वानी का अर्थ वाङमय रचना नहीं है, यह शन्द उन रचनाओं के गान की रंगत का द्योतक है। अकयर के समय में अन्य सभी कलाओं की भौति संगीत की भी उन्नति हुई। स्वयं सन्नाट भी नक्कारा जाने में सिद्धहस्त थे। उनकी बनाई नकारे की कुछ नई गते अव तक 'श्रकवरी' गत के नाम से प्रचलित है। इसी समय के स्वामी हरिदास वैष्णव महात्मा तथा संगीताचार्य हुए। इनके शिप्य तानसेन वर्तमान हिंदुस्तानी संगीत के मूलपुरुष हैं। तानसेन पहले रीवाँ दरवार में थे, वहाँ से सम्राट के पास उपहार स्वरूप भेजे गए थे। पहले ये ब्राह्मण थे, पीछे से मुसलमान हो गए। इनकी कत्र ग्वालियर में है जहां कलावंत तीर्थ करने जाते हैं। अकयर और उसके वंशजों के दरबार में भारत के संगीत की ही स्थान मिला था और रुघाव, सारंगी श्रादि जो विदेशीय वाद्य यंत्र थे ये भी हिंदुस्तानी संगीत के अनुकूल बना लिए गए थे। अकबर के समय में ही पदभजन के अद्वितीय गायक और रचयिता महात्मा सूरदास हुए जिन्होंने साहित्य और संगीत का अद्वितीय सफलता से संयोग किया। जहाँगीर और शाहजहाँ के राजत्यकाल में भरुवरी संगीत का ही अलं- करण होता रहा; कोई मौलिक उद्भावना नहीं हुई। महाकवि तुलसी- दास की रचनाओं से भी उनकी संगीतज्ञता का परिचय मिलता है। औरंगजेब के समय में संगीत पर बड़ा कुठाराघात हुना। कर सम्राट् ने कड़ी नाशा देकर दरवार से संगीत का बहिष्कार कर दिया। समान यद्यपि मुहम्मदशाह रंगीले के राज्य में संगीत की " पुनर्जागर्ति के चिह्न देख पड़े परंतु वह अपना असली रूप नहीं पा सका। मुहम्मदशाह के समय में धुरपद यानी के