पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२०५

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२०६ हिंदी साहित्य फी गिरी दशा के द्योतक है। उक्त चित्रकारी को केवल जैन पुस्तकों में - पाकर डाक्टर कुमारस्वामी प्रभृति विद्वानों ने उसका नाम जैन चिन. कारी रखा था; परंतु श्रीयुत एन० सी० मेहता की नवीन खोज के अनुसार इस कला को गुजराती कलम फहना चाहिए। इसका प्रचार केवल गुजरात में ही नहीं था, वरन् उत्तर भारत के उस विस्तृत भूभाग में भी था जहां हिंदी साहित्य की श्रादिकालीन वीरगाथानों को रचना हुई थी। यों तो पटों, फलकों और तालपत्रों पर चित्र बनते ही थे, किंतु उस समय तक चित्रण का मुख्य स्थल दीवारें ही थी । भीतों की सजावट चित्रों ही द्वारा होती थी और वास्तुविद्या के अंत- र्गत यह एक मुख्य कला थी। इस काल की "वसंत-विलास" नामक एक रचना श्रीयुत एन० सी० मेहता को मिली है। इस पुस्तक में संस्कृत, प्राकृत तथा श्रपन्नंश __ श्रादि के सुभापितों का संग्रह है और बीच बीच में पूर्व मध्य काल शृंगारिक चित्र भी हैं। इसका लिपि-काल १५०५ वि० है । अनुमान होता है कि विलासी श्रीमानों के लिये इस ग्रंथ की ऐसी सचित्र प्रतियाँ उस समय बहुत यनती रही होगी। इसकी लिपि में थोड़ी थोड़ी दूर.पर स्याही के रंग बदले गए हैं और कहीं कहीं सुनहली स्याही का भी प्रयोग किया गया है। हाशिए पर तरह तरह की बेल हैं। इसके चित्रों में कई ऐसे हैं जिनमें आगे की राजस्थान तथा बुंदेलखंड की चित्रकलां के चीज मिलते हैं। इस शृंगारिक रचना के अतिरिक्त जैन धर्म-ग्रंथों की भी फतिपय सचित्र प्रतियाँ इस काल में वनी थी जो अब भी ब्रिटिश म्यूजियम, इंडिया आफिस आदि में रक्षित है। भारत में भी कलकत्ते के दो एक बंगाली सज्जनों के संग्रहों में ऐसी कुछ प्रतियाँ हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर सोलहवीं शताब्दी के अंत तक के इसी शैली के कई चित्र काशी के नागरीप्रचारिणी सभा के भारत कला-भवन को प्राप्त हुए हैं। ये अपने ढंग के अनुपम हैं, क्योंकि इनका विषय कोई कथानक काव्य है जिसकी भाषा कहीं फारसी है और कहीं जायसी काल की हिंदी है। ये चित्र कागज पर खड़े वल में (कितावनुमा) बने हैं। दुर्भाग्य-वश इस ग्रंथ के केवल छः पन्ने हाथ लगे हैं, वे भी अभी ठीक ठोक पढ़े नहीं गए। तथापि उनके मिलने से अब यह चित्रण परिपाटी गुजरात को ही सीमा में न रहकर दो-श्राव तक खिंच पाती है।