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हिंदी भाषा की चोली थी। नाट्य ग्रंथों में जहाँ जहाँ भिन्न भिन्न पात्रों की घोलियों का निर्देश रहता है उसका तात्पर्य यह नहीं होता कि उस पान की परं. पराप्राप्त अथवा जातीय बोली वही है। नाट्यकार इस विषय में केवल पूर्वाचार्यों का अनुसरण कर पानविशेष की भाषा का निर्देश कर देते हैं। उससे यह कदापि न समझना चाहिए कि जिस पान की जो भाषा नाट्यशास्त्र में लिखी है वह उसकी मातृभाषा है। श्रथवा यदि यह मान भी लिया जाय कि प्रारंभ में जय भाभीर श्रादि जातियों ने भारत में प्रवेश किया उस समय यहाँ प्रचलित प्राकतों में उन्हीं के विकत उच्चारण और उन्हीं के कुछ स्वकीय शब्दों के मेल से भ्रष्टता उत्पन्न हुई हो और इसी नाते अपभ्रंश का संबंध श्राभीर आदि जातियों से जोड़ा गया हो, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि श्रारंभ से अंत तक अपभ्रंश उन्हीं की योली थी और उस दशा में भी उसमें इतना अधिक वाङमय प्रस्तुत हुआ कि भारतवर्ष के प्रामाणिक अलंकारियों ने संस्कत और प्राकत के समान ही अपभ्रंश साहित्य का उल्लेख करना भी आवश्यक समझा। जिस प्रकार विदेशी मुसलमानों के संसर्ग से बनी हुई 'हिंदुस्तानी' भाषा मुसलमानों की भाषा नहीं किंतु समस्त देश की राष्ट्रभाषा है उसी प्रकार भाभीर आदि के संपर्क से उत्पन्न अपभ्रंश भी समस्त देश की भाषा थी जिसमें प्रचुरता से साहित्य निर्माण हुश्रा। आकडेय ने अपने 'प्राकृत- सर्वस्व' में श्रामीरी को विमापा लिखकर अपभ्रंश का पृथक निर्देश किया है। इससे स्पष्ट है कि अाभीरों की जो बोली थी वह साहित्यिक भाषा नहीं थी। मार्कंडेय ने 'प्राकृतचंद्रिका' के श्लोक उद्धृत कर बहुत सी श्रपत्रंशों का उल्लेख किया है जो सप प्रांतीय विभापाएँ जान पड़ती है। अाजकल की हिंदी की भी तो बहुत सी विमापाएँ संप्रति भी व्यवहार में पाती है। इससे यह कोई नहीं कह सकता कि अवधी हिंदी ही हिंदी है, मायः समस्त उत्तरापथ में प्रचलित हिंदी हिंदी नहीं है। कीथ ने दूसरा प्रमाण रुद्रट का दिया है और उससे मालूम नहीं क्या समझकर यह निष्कर्ष निकाला है कि अपभ्रंश कभी देश-भापा नहीं थी। आश्चर्य है कि जय रुट ने स्पष्ट शब्दों में "पष्ठस्तु भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः" लिखकर देशभेद के कारण अपभ्रंश की विभिन्नता का उल्लेख किया है और उसके टीकाकार नमिसाधु ने इस विषय को उदाहरणों के द्वारा नितांत विशद कर दिया है तव भी कीथ को कैसे संदेह हुया। उसे पढ़कर फोई दूसरा अर्थ लगाया ही नहीं जा सकता। देशभेद के कारण जिस भाषा का भेद हो उसको देश-भाषा नहीं तो और क्या कहते हैं। नस्तु, इस प्रसंग को हम और अधिक बढ़ाना नहीं चाहते। हमारा