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हिंदी भाषा के समान शिष्टों के प्रयोग में वह भाने लगा, तव साधारण जनता ने फिर प्रचलित तथा प्रादेशिक रूपों को अपनाना प्रारंभ कर दिया। भारत के पश्चिम और पश्चिमोत्तर प्रदेशों में उकारांत संशा शब्द तथा अन्य नए रूप, जो पांचवीं या छठी शताब्दी में प्रयुक्त नहीं होते थे, प्रचुरता से काम में लाए जाने लगे और पूर्व-निर्धारित प्राकृतों से भेद करने के लिये इस नवीन लतएवती भापा का नाम अपभ्रष्ट या अपभ्रंश पड़ गया। पहले तो साक्षर इसका श्रादर नहीं करते थे, पर पीछे इसका भी मान हुआ और इसमें भी प्रचुरता से साहित्यरचना होने लगी। श्राजकल जैसे खड़ी बोली की कविता जय छाया की माया में पड़कर दुर्योध हो चली है, तव साधारण जन अपना मनोरंजन, पाल्हा, विरहा, लुरकी, लचारी, चाँचर, रसिया अथवा भैरो की कजली से कर रहे है और जैसे इनका प्रचार कहीं ग्राम्यगीतों के संग्रह के रूप में और कहीं भैरा-संप्रदाय के रूप में बढ़ रहा है, ठीक वही दशा उस समय अपभ्रंश की भी थी। हेमचंद्र ने प्राचीन तथा प्रचुरप्रयुक्त पदावली का अनुसरण कर साहित्य में प्रतिष्ठित इस भापा का व्याकरण भी लिख डाला। इस प्रकार अप. भ्रंश, नाटकों की प्राकतों और आधुनिक भाषानों के मध्य में वर्तमान, सर्वमान्य भापा हो गई। यों तो पूर्वी भाषाएँ भी अपभ्रंश के पुट से बची नहीं है; पर गुज. रात, राजपूताना तथा मध्यदेश (दोश्राब ) में घोली जानेवाली भापायों में विशेषकर अपभ्रंश के चिह्न टिगोचर होते हैं। दसवीं और परवर्ती शताब्दियों में मध्यदेश की शौरसेनी अपभ्रंश एक प्रकार से समम्त उत्तरा- पथ की साहित्यिक भाषा रही। मध्यदेश तथा गंगा की तराई में प्रति- ठित राजपूतों के राज्य तथा उनकी शक्ति ही इसका मूल कारण थी । गुजरात के जैनों ने भी इसकी बड़ी उन्नति की। यह प्रायः एक प्रकार फी खिचड़ी भाषा हो गई थी। प्राकृतसर्वस्व में मार्कंडेय ने तीन प्रकार की अपनंशों का निश्चय किया है। पहली नागर अपभ्रंश जो प्रायः राजस्थानी गुजराती की मूलभूत उन बोलियों पर आश्रित है जिनमें प्रचुरता से शौरसेनी का भी मेल पाया जाता था। दूसरी ब्राचड जो सिंध में प्रचलित थी और तीसरी उपनागर, नागर और प्रायड भापायों का मिश्रण थी जिसका प्रचार पश्चिमी राजपूताने तथा दक्षिणी पंजाय में था। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि जितने प्रकार की प्राकृत थी, उतने ही प्रकार की अपभ्रंश भी थी और देशभेद के कारण ही उसके भेद उपभेद भी हुए थे। पर उनके उदाहरण नहीं मिलते। पूर्व में अशोक के अनंतर वहाँ की प्रादेशिक भाषा की कुछ भी उन्नति नहीं हुई।