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प्राचीन भाषाए की भापा भी मानते हैं। किंतु प्राचीन ग्रंथों में पिशाच के नाम से कई देश गिनाए गए हैं- पारड्यकेकयबालीकसिंहनेपालकुन्तलाः । सुदेष्ण-वोट-गन्धार-हैव-कन्नौजनास्तथा । एते पिशाचदेशाः स्युस्तद्देश्यस्तद्गुणो भवेत् ॥ इसमें कई नाम ऐसे भी हैं जिनकी पहचान अब तक नहीं हो सकी। मार्कडेय ने अपने व्याकरण 'प्राकतसर्वस्व में पैशाची के जो नियम लिखे हैं, उनमें से एक है-'पञ्चस्वाधावितरयोः'। इसका अर्थ यह है- पांचों. धर्मों में तृतीय और चतुर्थ वणों के स्थान में प्रथम और द्वितीय वर्ण होते हैं। इसकी प्रवृत्ति पंजावी भाषा में देख पड़ती है। उसमें साधारणतः लोग भाई का पाई, अध्यापक का हत्तापक, घर का फर, धन्य का तन्न या इससे कुछ मिलता जुलता उच्चारण करते हैं। उसमें एक और नियम "युक्तविको बहुलम्" (संयुक्त वर्णों का विश्लेषण) भी देस पड़ता है। कसट, सनान, परस, पतनी आदि उदाहरण पंजाबी में दुर्लभ नहीं। इससे जान पड़ता है कि चाहे पैशाची पंजाब की भापा न भी रही हो, पर उसका प्रभाव अवश्य पंजाबी पर पड़ा है। राजशेखर ने, जो विक्रम संवत् की दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में था, अपनी काव्यमीमांसा में एक पुराना श्लोक उद्धृत किया है जिसमें उस समय की भाषाओं का स्थल-निर्देश है—गौड़ (बंगाल) आदि संस्कृत में स्थित है, लाट (गुजरात) देशियों की रुचि प्राकृत में परि- मित है, मरुभूमि, टक्क (टॉक, दक्षिण पश्चिमी पंजाय) और भादानक (संभवतः यह राजपूताना का कोई प्रांत था) के वासी भूत भापा की सेवा करते हैं, जो कवि मध्यदेश (कन्नौज, अंतर्वेद, पंचाल श्रादि ) में रहता है, वह सर्व भापानी में स्थित है। इससे उस समय किस भाषा का कहाँ अधिक प्रचार था, इसका पता चल जाता है। माकंडेय और रामशर्मा ने अपने व्याकरणों में इस भाषा का विशेष रूप से उल्लेख किया है। डाक्टर ग्रियर्सन ने अपने एक लेख में रामशर्मा के प्राकृत-कल्पतरू के उस अंश का विशेष रूप से वर्णन किया है, जिसमें पैशाची भाषा का विवरण है। उस लेख में बतलाया गया है कि रामशर्मा के अनुसार पैशाची या पैशाचिका भाषा के दो मुख्य भेद हैं--एक शुद्ध और दूसरा संकीर्ण । पहली तो शुद्ध पैशाची, जैसा कि उसके नाम से ही प्रकट होता है, और दूसरी मिश्र पैशाची है। पहली के सात और दूसरी के चार उपभेद गिनाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं- (१) कैकेय पैशाचिका,