हिंदी भाषा नाम का अभिप्राय यही है। मागधी तो थी ही, अन्य भाषाओं के मेल से वह पूरी मागधी न रही, अर्धमागधी हो गई। इसी अर्धमागधी से श्रर्द्धमागधी अपभ्रंश और उससे अाजकल की पूरवी हिंदी अर्थात् अवधी, वघेली तथा छत्तीसगढ़ी निकली हैं। अर्धमागधी कौशल में चोली जाती थी और कोशल शूरसेन तथा मगध के बीच में पड़ता है। अतः यह अनुमान हो सकता है कि वह शौरसेनी और मागधी के मिश्रण से बनी होगी; अनुमान क्या मार्कडेय ने स्पष्टतः लिखा भी है कि "शौरसेन्या श्रदूरत्वादियमेवार्धमागधी" (प्रा० सर्व० १०३), पर वास्तव में यह बात नहीं है। अनेक अंशों में यह मागधी और महाराष्ट्रो प्राकतों से मिलती है और कुछ अंशों में उसका इनसे विभेद भी है, पर शौरसेनी से उसका यहुत विभेद है । मामदीश्वर ने संक्षिप्तसार (५८) में स्पष्ट ही लिखा है--"महाराष्ट्री मिथार्धमागधी" अर्थात् महाराष्ट्री के मेल से अर्ध-मागधी हुई। अाधु- निक देश भाषाओं के विचार से पश्चिमी हिंदी और बिहारी के बीच की भाषा पूर्वी हिंदी है और उसमें दोनों के अंश वर्तमान हैं। आधुनिक भाषाओं के विवेचन के अाधार पर अंतरंग, वहिरंग और मध्यवर्ती भाषाओं के ये तीन समूह नियत किए गए हैं। यदि हम अधे-मागधी को मध्यवर्ती भापायों की स्थानापन्न मान लें, तो प्राकृत काल की भापानों का विभाग इस प्रकार होगा- बहिरंग प्राकृत-महाराष्ट्री और मागधी । मध्यरत प्रारत-अर्धमागधी। अंतरंग प्राकृत-शौरसेनी। ननेक विद्वानों ने पैशाची भापात्रों को भी प्रास्तों में गिना है। घरवि ने प्रास्तों के अंतर्गत चार भाषाएँ गिनाई है-महाराष्ट्री, पैशाची, देशाची मागधी और शौरसेनी। हेमचंद्र ने केवल तीन प्रकार की प्राकृतों के नाम गिनाए हैं--प्रार्प अर्थात् अर्धमागधी, चूलिका पैशाचिका और अपभ्रंश। दूसरीमापा का दूसरा नाम भूतमापा भी है, जो गुणाटर की 'बडुकहा' (वृहत्कथा) से अमर हो गई है, पर यह ग्रंथ इस समय नहीं मिलता। हाँ, दो कश्मीरी पंडितो, क्षमेद्र और सोमदेव, के किए हुए इसके संस्कृत अनुवाद अवश्य मिलते हैं। कश्मीर का उत्तरी प्रांत पिशाच या पिशाश ( कथा मांस सानेवाला) देश कहलाता था, और कश्मीर ही में वृहत्कथा का श्रनुवाद मिलने के कारण पैशाची भापा यहीं की भाषा मानी जाती है। कुछ लोग इसे पश्चिम-उत्तर प्रदेश की और कुछ राजपूताना और मध्यमारत
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