पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१३९

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हिंदी का शास्त्रीय विकास १३७ (७) कौन-संस्कृत का, प्राकृत को, अपनश फवणु से बना है; और किस-संस्कृत कस्य, प्राकृत कस्स, कास, अपभ्रंश कासु से निकला है। (८) क्या-संस्कृत किम्, अपभ्रंश फाइँ और काहि प्राकृत के अपादान कारक रूप 'काहे' से सीधा आया है । (९) कोई-संस्कृत कोऽपि, प्राकृत कोवि, अपभ्रश कोथि अथवा को+हि के ह' के लोप हो जाने से बना है; और किसी-कस्य, कस्त, कासु+हो (सं० हि ) से व्युत्पन्न है। इन सब सर्वनामों में, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, यह विशेषता है कि इन सवका विकारी रूप पष्ठी या कहीं कहीं सप्तमी के रूप से बना है और उनके आदि कारक प्रत्यय उनके साथ में लगे हुए रहकर भी श्रआधुनिक भाषाओं में श्राकर अपने व्यापार से च्युत हो गए हैं। इसलिये नई विभक्तियाँ लगाकर उन्हें कार्यकारी बनाया गया है। सबके बहुवचन एक ही प्रकार से 'न' या 'न्ह' से बने हैं। ये सय रूप एक ही ढंग से बने हैं। इनका कोई अपना स्वतंत्र इतिहास नहीं है; सब एक ही सांचे में ढले हैं। श्राधुनिक हिंदी में वास्तविक तिडंत ( साध्यावस्थापन ) क्रियाओं का यहुत कुछ लोप हो गया है। ब्रजभापा और अवधी में तो इनके रूप मिलते हैं, पर खड़ी बोली में यह बात नहीं रह क्रियाएँ रह गई है। हाँ, आशा या विधि की क्रियाएँ अवश्य इसमें भी शुद्ध साध्यावस्थापन हैं जिनमें लिंग-भेद नहीं होता। श्रय हिंदी में अधिकांश क्रियाएँ दो प्रकार से बनती हैं-एक तो 'है। की सहायता से और दूसरे भूतकालिक कृदंत के रूपों से। है। पहले वास्तविक क्रिया थी और अब भी 'रहना' के अर्थ में उसका प्रयोग होता है, जैसे-'वह है। पर इसका अधिकतर कार्य दूसरी क्रियाओं की सहायता करके उनके भिन्न भिन्न रूप बनाना तथा कालों की व्यवस्था करना है। जैसे-'वह जाता है', 'मैं गया था' इत्यादि। नीचे ब्रजभाषा और अवधी के उदाहरण देकर हम यह दिखलाते हैं कि कैसे उन दोनों भाषाओं में पहले स्वतंत्र क्रियाएँ थीं और अब उनका लोप हो जाने पर उनका स्थान कृदंत कियात्रों ने ग्रहण कर लिया है और उनका कार्य सहायक क्रिया 'है' के द्वारा संपादित होता है।