पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२९

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हिंदी.का शास्त्रीय विकास १२७ 'को' विभक्ति श्राती है उसमें, 'कते का प्रयोग संस्कृत साहित्य में कहीं नहीं मिलता। अतः श्राधुनिक रूप के आधार पर एक अप्रसिद्ध मूल की कल्पना करना उल्टी गंगा बहाना है। दूसरे लोग अम्हाकं, अम्हें, तुम्हाकं, तुम्हें, से हमको, हमें, तुमको, तुम्हें की उत्पत्ति मानकर इसी 'क' या 'श्राक' की और शब्दों में अतिव्याप्ति स्वीकार करते है। ___संस्कृत की 'कृ' धातु से 'कृत' शब्द बनता है। इसका कारण फारक का रूप 'कृतेन और अधिकरण कारक का रूप 'कृते' होता है। ये दोनों कृतेन और कृते संप्रदान कारक का भाव प्रकट करते हैं। जैसे--- देवदत्तस्य कृते = देवदत्त के लिये। हेमचंद्र अपने व्याकरण (४।४२५) में लिखते हैं कि अपभ्रंश में 'केहि' निपात (अव्यय) तादर्थ्य (= के लिये) में प्रयुक्त होता है जो संप्रदान कारक का अर्थ प्रकट करता है। संस्कृत के कृत से अपभ्रंश का 'क' होता है, जिसका करण बहुवचन या अधि.. करण एक वचन रूप 'कहि' या 'कयहि होता है। हेमचंद्र जिस 'केहि' का उल्लेख करते हैं, वह वास्तव में इसी 'कअहि' या 'कयहि' का विकृत रूप है। इसी केहि' से आधुनिक भापात्रों की संप्रदान कारक की विभक्तियाँ किही, के, कू, की, को, काहु, किनु, गे, खे, कु, के, का श्रादि घनी हैं। हिंदी में इस 'को' विभक्ति के रूप प्रजभाषा और अवधी में 'कहँ', को, के कुँ, कँ, को, कउँ और के होते हैं। इन्हीं 'कहँ' 'कों' श्रादि से आधुनिक हिंदी की 'को' विभक्ति बनी है। अतएव यह स्पष्ट हुश्रा किरहिंदी की 'को' विभक्ति संस्कृत के कृते या कृतेन शब्द से अपभ्रंश में • 'केहि' होती हुई हिंदी में 'को' हो गई है । ) कुछ लोग अपभ्रंश के 'केहि' निपात को कर+हि के संयोग से बना हुश्रा मानते हैं, जो क्रमशः संबंध और संप्रदान कारक के प्रत्यय माने जाते हैं। (३) करण और अपादान-हिंदी में इनकी विभक्ति 'से' है। दोनों कारकों की एक ही विभक्ति होने का ठीक कारण नहीं जान पड़ता। पाली में इन दोनों का यहुवचनांत रूप एक सा होता है। संभव है, इसी उपमान से इनमें अभेद कर लिया गया हो। अधिकांश विद्वान् इसकी व्युत्पत्ति प्राकृत की 'सुतो विभक्ति से बताते हैं। प्राचीन हिंदी में अपादान के लिये ते तथा सेती और हुँत, हुँते प्रादि विभक्तियाँ भी भाई हैं। यह 'सती' तो स्पष्ट संतो से निकली है और हुँत, ते प्राकृत की विभक्ति हिंतो से। से विभक्ति भी सुंतो से निकली हुई जान पड़ती है। चंद वरदाई के पृथ्वीराज रासो में कई स्थानों पर 'सम' शब्द 'से' के अर्थ में पाया है। जैसे- कहै फंति सम कंत। (१-११)