पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१११

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हिंदी का शास्त्रीय विकास (२७) म-अल्पप्राण, घोप, श्रोष्ट्य अनुनासिक स्पर्श है। ' उदा०-माता, रमता, काम । (२८),मह-महाप्राण, घोप, श्रोष्ठ्य, अनुनासिक स्पर्श है। न्ह के समान इसे भी अब विद्वान् संयुक्त व्यंजन न मानकर मूल महाप्राण व्यंजन मानते हैं। उदा०-तुम्हारा, कुम्हार । यहाँ एक बात ध्यान देने की यह है कि हिंदी के विचार से न, न्ह, म और म्ह, ये ही अनुनासिक ध्वनियाँ हैं। शेप तीन ङ्, अ और ण के स्थान में 'न' ही आता है। केवल तत्सम शब्दों में इनका प्रयोग किया जाता है। और अनुस्वार के विचार से तो दो ही प्रकार के उच्चारण होते हैं-न और म। . (२६) ल-पार्श्विक, अल्पप्राण, घोप, वय, ध्वनि है। इसके उच्चारण में जीभ की नोक ऊपर के मसूढ़ों को अच्छी तरह छूती है किंतु पार्श्विक . साथ ही जीभ के दोनों ओर खुला स्थान रहने से हवा निकला करती है। यद्यपि ल और र एक ही स्थान से उच्चरित होते हैं पर ल पार्श्विक होने से सरल होता है। उदा०-लाल, जलना, फल। . (३०) ल्ह-यह ल का महाप्राण रूप है। न्ह और म्ह की भांति यह भी मूल-व्यंजन ही माना जाता है। इसका प्रयोग केवल वोलियों में मिलता है। । उदा०-व्र-काल्हि, कल्ह (धुंदेलखंडी), ब्र० सल्हा (हिं० सलाह)। 'कलही' जैसे खड़ी वोली के शब्दों में भी यह धनि सुन पड़ती है। (३१) र-लुंठित, अल्पप्राण, वय, घोप-ध्वनि है। इसके उच्चा- लुठित रण में जीभ की नोक लपेट खाकर वर्क्स अर्थात् ऊपर के मसूढ़े को कई बार जल्दी जल्दी छूती है । उदा०-रटना, करना, पार, रिण। (३२) रह-र का महाप्राण रूप है। इसे भी मूल ध्वनि माना जाता है। पर यह केवल योलियों में पाई जाती है। जैसे-फरहानो, उरानो अादि (प्रज०)। (३३) ड़-अल्पप्राण, घोप, मुर्धन्य उत्क्षिप्त ध्वनि है। हिंदी की नवीन ध्वनियों में से यह एक है। इसके उच्चारण में उलटी जीभ की नोक से कठोर तालु का स्पर्श झटके के साथ दप्त किया जाता है। इ शब्दों के आदि में नहीं पाता; केवल मध्य अथवा अंत में दो स्वरों के बीच में ही आता है।