पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०७

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१०७ हिंदी का शास्त्रीय विकास से जाते हैं जिससे साँस के एक ही झोंके में ध्वनि का उच्चारण होता है और अवयवों में परिवर्तन स्पष्ट लक्षित नहीं होता, क्योंकि इस परिवर्तन- म काल में ही तो ध्वनि स्पष्ट होती है । अतः संध्यक्षर अथवा संयुक्त स्वर एक अक्षर हो जाता है, उसे सयुक्त स्वर ध्वनि-समूह अथवा अक्षर-समूह मानना ठीक नहीं। पर व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो कई स्वर निकट पाने से इतने शीघ्र उश्चरित होते हैं कि वे संध्यवर से प्रतीत होते हैं। इससे कुछ विद्वान् अनेक स्वरों के संयुक्त रूपों को भी संध्यवर मानते हैं। हिंदी में सच्चे संध्यक्षर दो ही है और उन्हीं के लिये लिपिचिह्न भी प्रचलित हैं। (१) ऐ ह्रस्व अ और हस्व ए की संधि से बना है; उदा०-ऐसा, कैसा, वैर। और (२) श्री ह्रस्व श्र और ह्रस्व श्री की संधि से बना है; उदा०-औरत, चौनी, कौड़ी, सौ। इन्हीं दोनों ऐ, श्री का उच्चारण कई वोलियों में अइ, अउ के समान भी होता है; जैसे- पैसा और मौसी, पइसा और मउसी के समान उच्चरित होते हैं। यदि दो अथवा अनेक स्वरों के संयोग को संध्यतर मान लें तो भैया, कौश्रा, श्रानो, वोए श्रादि में श्रइश्रा, अउश्रा, श्राश्रो, ओए आदि संध्यतर माने जा सकते हैं। इन. तीन अथवा दो अक्षरों का शीघ्र उच्चारण मुखद्वार की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तित होते समय किया जाता है, इसी से इन्हें लोग संध्यक्षर मानते हैं। इनके अतिरिक्त प्रज, अवधी आदि वोलियों में अनेक स्वर-समूह पाए जाते हैं जो संध्यक्षर जैसे उच्चरित होते हैं। उदा०-(७०) अइसी, गऊ और (अवधी) होइहै, होउ श्रादि। व्यंजन (१)क-यह अल्पप्राण श्वास, अघोप, जिह्वामूलीय, स्पर्श व्यंजन __ है। इसका स्थान जीम तथा तालु दोनों की दृष्टि से सयसे पीछे है। .... इसका उच्चारण जिह्वामल श्रीर कौए के स्पर्श से सरायजन होता है। वास्तव में यह ध्वनि विदेशी है और अरवी-फारसी के तत्सम शब्दों में ही पाई जाती है। प्राचीन साहित्य में तथा साधारण हिंदी में क के स्थान पर क हो जाता है। ___उदा०--काविल, मुकाम, ताक । (२) क-यह अल्पप्राण, अघोप, कंट्य स्पर्श है। इसके उच्चा- रण में जोभ का पिछला भाग अर्थात जिह्वामध्य कोमल तालु को छूता है। ऐसा अनुमान होता है कि प्रा० भा० श्रा० फाल में कवर्ग का उच्चारण और भी पीछे होता था। क्योंकि कवर्ग 'जिह्वामूलीय' माना