पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०६

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हिंदी भाषा में सुन पड़ती है; जैसे-५० रईस, व'चारा (हिं० विचारा), नौकर। कुछ लोगों का मत है कि यह उदासीन नं पश्चिमी हिंदी को पश्चिमी घोली में भी पाया जाता है। अवधी में तो यह पाया ही जाता है; जैसे-सोरही राम्क। आजकल की टकसाली खड़ी घोली के उच्चारण के विचार से इन १६ अक्षरों में से केवल ही विचारणीय है-अ, आ, ओं, इ, ई, उ, ऊ, - ए, श्रो। उनमें भी या फेवल विदेशी शब्दों में सना वाला कवर प्रयुक्त होता है अर्थात् हिंदी में समानाक्षर पाठ ही होते हैं। इसके अतिरिक्त हिंदी में हस् ऍ और ओ का भी व्यवहार होता है, जैसे-ऍक्का, सोनार, लोहार । शेष विशेप स्पर विभाषाओं और बोलियों में ही पाए जाते हैं। ऊपर वर्णित सभी अक्षरों के प्रायः अनुनासिक रूप भी मिलते हैं पर इनका व्यवहार शब्दों में सभी स्थानों पर नहीं होता -कुछ विशेष स्थानों पर ही होता है। हिंदी की घोलियों में १ स्वर धुंदेली अधिक अनुनासिक-यहुला है। अनुनासिक और अननुनासिक स्वरों का उच्चारण-स्थान तो यही रहता है; अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में केवल कोमल तालु और कोत्रा कुछ नीचे झुक जाते हैं जिससे हवा मुख के अतिरिक्त नासिका. विवर में भी पहुँच जाती है और गूंजकर निकलती है। इसी से स्वर 'अनुनासिक' हो जाते हैं। उदाहरण- अँ-श्रृंगरसा, हँसी, गँवार। ओ-श्रीसू, यांस, सांचा। हूँ-विदिया, सिंघाड़ा, धनिया । ई-एंट, ईगुर, सींचना, श्राई। 'उँ-धुंघची, वुदली, मुँह । ऊँ ऊँघना, धना, गेहूँ। पंगद, ऐंचा, पाते। . इसके अतिरिक्त ब्रज के लों, साँ, हो, में श्रादि अवधी के घंटुश्रा, गोठिवा (गाँठ में घाँधूंगा) श्रादि शन्दों में अन्य विशेष' स्वरों के अनुनासिक रूप भी मिलते हैं। , संध्यवर उन असवर्ण स्वरों के समूह को कहते हैं जिनका उच्चारण सास के एक ही वेग में होता है अर्थात् जिनका उच्चारण एक अक्षरवत् होता है। संध्यक्षर के उच्चारण में मुखावयव एक स्वर के उच्चारण-स्थान से दूसरे स्वर के उच्चारण-स्थान की ओर बड़ी शीव्रता