पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०२

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छठा अध्याय हिंदी का शास्त्रीय विकास हिंदी का ऐतिहासिक विकास हम देख चुके हैं पर भाषा-विज्ञान फी दृष्टि से किसी भी भाषा का विकास दिखाने के लिये उस भाषा की ध्वनि, रूप और अर्थ-तीनों का ऐतिहासिक अध्ययन किया जाता है। यदि हिंदी का भी इसी प्रकार का अध्ययन किया जाय तो एक बड़ा ग्रंथ बन सकता है-भारोपीय काल की भाषा से लेकर वैदिक, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवह पुरानी हिंदी और अाधुनिक हिंदी तक का अध्ययन करना पड़ता है। यहां पूरे विस्तार के साथ विवेचन करने के लिये स्थान नहीं है तो भी संक्षिप्त परिचय देने के लिये हम कम से (हिंदी की ध्वनि, रूप और अर्थ का विवेचन करेंगे। हिंदी ध्वनि-समूह का परिचय परिचय देने में जिन पारिभाषिक शब्दों को हमारे अन्य ग्रंथों में व्याख्या हो चुकी है उन्हीं का हम प्रयोग करेंगे। जैसे यदि हम कहें कि 'क' "खास कंट्य स्पर्श' है तो इस वर्णन से यह समझ लेना चाहिए कि 'क' एक व्यंजन है जिसके उच्चारण में जिहामध्य ऊपर उठकर कंठ (अर्थात् कोमल तालु ) को छू लेता है। कोमल तालु इतना ऊँचा उठा रहता है कि हवा नासिका में नहीं जा पाती अर्थात् यह ध्वनि अनुनासिक नहीं है। हवा जय फेफड़ों में से निकलकर ऊपर को श्राती है तो स्वरतं. त्रियाँ कंपन नहीं करती (इसी से तो यह खास-ध्वनि है); और जीभ कंठ को छूकर इतनी शीघ्र हट जाती है कि स्फोट-ध्वनि उत्पन्न हो जाती है (इसी से वह स्पर्श-ध्वनि कही जाती है)। इसी प्रकार यदि 'इ' को 'संवृत अग्र स्वर कहा जाता है तो उससे यह समझ लेना चाहिए कि 'इ' एक स्वर है, उसके उञ्चारण में जिह्वान कोमल तालु के इतने पास उठकर पहुँच जाता है कि मार्ग बंद सा हो जाने पर घर्षण नहीं सुनाई पड़ता और कोमल तालु नासिकामार्ग को बंद किए रहता है। स्वर (१) श्र-यह हस्व, अर्द्ध विवृत, मिन स्वर है अर्थात् इसके उच्चारण में जिह्वा की स्थिति न विलकुल पीछे रहती है और न विलकुल