मात्र से अपना संबंध जोड़ उन्हें धोखा दे मुसलमान बनाने का प्रबंध कर रहा था, कि इतने में महाराज मधुकर साह का अर्कोदय हो उठा। उनकी विमल कीति मुगल-सम्राट् का हृदय सालने लगी। उसके यश का खद्योत इनके यशार्क के सम्मुख कांतिहीन सा हो गया और उसके यश की जर्जरित नौका इनके अगम्य कीर्तिसागर में डूबती जान पड़ी। तब दुराग्रही मुगल-सम्राट् ने ईर्षावश इन्हें भी राजपूताने के कुछ राजपूतवंशों के समान अपनी दासत्व-श्रृंखला में बांधने के नाना उपाय रचे, परंतु यहाँ तो "भूख मरै दिन सात लैौं सिंह घास नहिं खाय” की दशा थी। अकबर ने सब प्रयोगों के निष्फल होने पर अपने पुत्र मुराद को बलाध्यक्ष कर इन पर सेना संधान किया । परंतु वह सेना महाराज के कृपाण के प्रज्वलित दीपज्योति की पतंग हुई। मुराद रण से भाग गया, अंत में अक- बर ने हार मानकर इनसे संधि कर लो। कवींद्र केशवदासजी के पितामह कृष्णदत्तजी मिश्र, जो प्रख्यात प्रबोधचंद्रोदय नामक रूपक के रचयिता हैं, इन्हों महाराज के राजपंडित थे।
इन महाराज का और अकबर का यहाँ तक घनिष्ठ संबंध बढ़ता गया और अकबर इनका यहाँ तक कृपाकांक्षो रहा कि उसने इनके पुत्र महाराज रत्नसेन के सिर पर अपने हाथ से पगड़ो बाँधी और इनके ज्येष्ठ पुत्र महाराज रामशाह की सहा- यता ले दक्षिण विजय किया। महाराज के स्वर्गवासी होने पर वीरकेशरी महाराज वीरसिंहदेव राज्याधिकारी हुए ।