मील भर के लगभग लंबा एक अंडाकार टापू बीच में रह जाता
है। पाठक महानुभावो !आप इस टापू को भूल न जाइएगा।
आगे चलकर आप इस टापू पर फिर अावेंगे। नगर के चतुर्दिक्
पहाड़ी पत्थरों की टोलें चुन चुनकर कोट बनाया गया था और
उसमें बड़े बड़े ऊँचे फाटक छोड़ दिए गए थे। ये टोलें चूने से
जोड़ी नहीं गई हैं, केवल एक दूसरे पर चुन दी गई हैं। इनके
दोनों ओर सघन वृक्ष जम आए हैं जिनकी जोड़ों में फंसकर ये
ऐसी हो गई हैं कि हिलाए नहीं हिल सकतीं और इसी कारण
स्वाभाविक पर्वत-श्रेणी सी प्रतीत होती हैं। इस ऊजड़ दशा में
भी हमें यह स्थान रम्य जान पड़ता है, मानो मनुष्यों के अभाव
में स्वयं प्रकृति देवी वहाँ पथिकों का सत्कार करती हैं। इसी
रम्य भूमि पर महाराज रणरुद्रजी ने ओड़छा बसाया था ।
किसी कवि ने सत्य कहा है "गुण ना हिरानो गुण ग्राहक
हिरानो है " राजा गुणग्राहक चाहिए, फिर गुणियों की त्रुटि
कहाँ। राजा रणरुद्र की गुणग्राहकता से प्रान की आन में
सैकड़ों गुणी, पंडित, विद्वान, नीतिज्ञ, ओड़छे में आ बसे;सब
का राजदरबार से सत्कार होने लगा। महाराज रणरुद्र के
पश्चात् महाराज भारतचंद्र, और तब हरिचंद्र राजा हुए।
इन सपूतों ने अपने पूर्वजों के राज्य को और भी बढ़ाया।
कृतघ्न शेरशाह सूर ने पूर्व उपकारों को भूल महाराज हरिचंद्र
पर आक्रमण किया। परंतु अंत में वह कायर इनकी कृपाण
का लेख अपनी पीठ पर लिखा रक्तप्लावित और आहत हो