पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/७०

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सूरदास ने मेरा प्रबोध किया, और "सबै दिन जात न एक समान" इस बात को स्मरण कर जगत् को परिवर्तनशील जान चित्त ने धैर्य धारण किया । पुनः कई दिन तक मैं झाँसी नगर के प्राचीन चिह्नों का अनुसंधान करता रहा। इसी अवसर पर एक दिन मैं नगर के कोट के एक द्वार से निकला जो "ओड़छा द्वार" करके प्रसिद्ध है। इस द्वार को देखते ही मुझे अकस्मात् कवि-कुल-शिरोमणि सुरदासजी के सहयोगी साहित्य- गगन के शोभावर्द्धक नक्षत्र कवींद्र केशवदासजी के, तथा उनके प्रतिपालक और प्रचंड मुगल-सम्राट् कुटिल-नीत्यवलंबी अकबर के दर्प दमनकारी बुंदेलवंशावतंस वीरशिरोमणि महाराज वीर. सिंहदेवजी के अलौकिक चरित्रों की रंगभूमि का स्मरण हो प्राया। सब ओर से हटकर चित्त उसी ओर आकर्षित हो गया। यद्यपि मुझे कई एक आवश्यक कार्यों के कारण झाँसी से बाहर जाने का अवकाश न था, परंतु “मन हठ परयो न सुनहि सिखावा” की दशा हुई, सब काम छोड़कर सबके बर्जने पर भी मैं गाड़ी मँगा दूसरे दिन प्रात:काल इन प्रातःस्मरणीय महानुभावों की जन्मभूमि देखने को चल दिया। प्रकट हो कि ओड़छा झाँसी से आठ मील के अंतर पर है, मार्ग अत्यंत दुर्गम है, यद्यपि ओड़छाधिपति महाराज टीकमगढ़ ने, जो बुंदेल- खंडीय राज-मंडल के अग्रणी हैं, उसे ऐसा सुधरवा रखा है कि गाड़ी आदि के जाने में कुछ कष्ट नहीं होता। पार्वतीय मार्ग होने से बहुधा मार्ग ऊँचा नीचा है, जो मुझे संसार की
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