कवि-कुल-कमल-दिवाकर महात्मा सूरदासजी ने सत्य कहा है-"सबै दिन जात न एक समान"। निस्संदेह यह वाक्य ऐसा सारगर्भित है कि इसे जितना ही सोचिए उतना ही यह गूढ़ प्रतीत होता है। इतिहासानुरागी लोगों के लिये तो यह वाक्य ऐसा उपयोगी है कि यदि वे इसे स्वर्णाक्षरों से लिखकर रात दिन अपने सामने लटकाए रहें तो भी अनुचित न होगा। दंभी पुरुषों के सम्मुख तो यह वाक्य घनघोर नाद से पढ़े जाने के योग्य ही है। जनवरी मास में बुँदेलखंड के बीच पर्य्यटन करता हुआ जब मैं झाँसी में पहुँचा और वहाँ के दुर्गम दुर्ग, कोट तथा महाराणी लक्ष्मीबाई के राजभवन पर मेरी दृष्टि पड़ी, नगर में हिंदुओं के प्राचीन नगरों के ढब के हाट, बाट, मंदिर, गृह-जिनके द्वारों पर गज, अश्व, सेना, देवतादि के नाना रंगों के चित्र बने थे-मैंने देखे, तब अनायास, एरियन, फाहियान, हुएनसाँग आदि विदेशियों द्वारा लिखित और प्राचीन कवियों द्वारा वर्णित भारतवर्षीय नगरों का चित्र आँखों के सम्मुख आ खड़ा हुआ और भारतवर्ष की उस सुख की दशा को वर्तमान दीन दशा से मिलाने पर चित्त विकल हो उठा। कंठावरोध होने को ही था कि पुनः महात्मा
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