कहे बिना हमारी आत्मा नहीं मानती कि अवश्य हम एक
दिन इस सुख के अधिकारी थे हम लोगों में भी एक दिन
स्वदेशभक्त उत्पन्न होते थे, हममें सौभ्रात्र और सोहार्द का
अभाव न था, गुरु-भक्ति और पितृ-भक्ति हमारा नित्य कर्म
था, शिष्ट-पालन और दुष्ट-इमन ही हमारा कर्त्तव्य था।
अधिक क्या कहें,-कभी हम भी ऐसे थे कि जगत् का लोभ
हमें अपने कर्तव्य से नहीं हटा सकता था। पर अब वह बात
नहीं है और न उसमें कोई प्रमाण ही है !
हमारे दुरदर्शी महषि भारत के मंद भाग्य को पहले ही अपनी दिव्य दृष्टि से देख चुके थे कि एक दिन ऐसा आवेगा कि न कोई वेद पढ़ेगा न वेदांग, न कोई इतिहास का अनु- संधान करेगा और न कोई पुराण ही सुनेगा! सब अपनी भूल जायेंगे । देश आत्मज्ञान-शून्य हो जायगा। इसलिये उन्होंने अपने बुद्धि-कौशल से हमारे जीवन के साथ 'राम' नाम का दृढ़ संबंध किया था। यह उन्हीं महर्षियों की कृपा का फल है कि जो देश अपनी शक्ति को, तेज को, बल को, प्रताप को, बुद्धि को और धर्म को अधिक क्या जो अपने स्वरूप तक को भूल रहा है, वह इस शोचनीय दशा में भो राम नाम को नहीं भूला है ! और जब तक 'राम' स्मरण है, तब तक हम भूलने पर भी कुछ भूले नहीं हैं।
महाराज दशरथ का पुत्रस्नेह, श्रीरामचंद्रजी की पितृभक्ति,
लक्ष्मण और शत्रुघ्न की भ्रातृभक्ति, भरतजी का स्वार्थत्याग,
क्षमता को