जिस दीपक को हम निर्वाणप्राय देखते हैं,निःसंदेह उसकी शोचनीय दशा है और उससे अंधकार-निवृत्ति की आशा करना दुराशा मात्र है, परंतु यदि हमारी उसमें ममता हो और वह फिर हमारे स्नेह से भर दिया जाय तो स्मरण रहे कि वह प्रदीप वही प्रदीप है जो पहले समय में हमारे स्नेह, ममता और भक्ति-भाव का प्रदीप था। उसमें ब्रह्मांड को भस्मीभूत कर देने की शक्ति है। वह वही ज्योति है जिसका प्रकाश सूर्य में विद्यमान है एवं जिसका दूसरा नाम अग्निदेव है और उपनिषद् जिसके लिये पुकार रहे हैं——
"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति"।
वह प्रदीप भगवान रामचंद्र के पवित्र नाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यद्यपि राम नाम की क्षुद्र प्रदीप के साथ तुलना करना अनुचित है, परंतु यह नाम का दोष नहीं है, हमारे क्षुद्र भाग्य की क्षुद्रता का दोष है कि उनका भक्ति-भाव अब हममें ऐसा ही रह गया है।
कभी हम लोग भी सुख से दिन बिता रहे थे, कभी हम
भी भूमंडल पर विद्वान और वीर शब्द से पुकारे जाते थे,
कभी हमारी कोति भी दिगदिगंतव्यापिनी थो, कभी हमारे
जयजयकार से भी आकाश गूंजता था और कभी बड़े बड़े
सम्राट हमारे कृपाकटाक्ष की भी प्रत्याशा करते थे-इस बात
का स्मरण करना भी अब हमारे लिये अशुभचिंतक हो रहा
पर कोई माने या न माने, यहाँ पर खुले शब्दों में यह