हमें दो चार टेढ़ी सीधी सुना जाता है। यदि हम उसको
एक दिन पकड़कर पीट दे तो हमारा यह कर्म शुद्ध प्रतिकार
नहीं कहलाएगा क्योकि नित्य गाली सुनने के दुःख से बचने
के परिणाम की ओर भी हमारी दृष्टि रही। इन दोनों अव-
स्थाओं को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगेगा कि दुःख से उद्विग्न
होकर दु:खदाता को कष्ट पहुँचाने की प्रवृत्ति दोनों में है। पर
एक में वह परिणाम आदि के विचार को बिलकुल छोड़े हुए
है और दूसरे में कुछ लिए हुए। इनमें से पहले प्रकार का
क्रोध निष्फल समझा जाता है। पर थोड़े धैर्य के साथ
सोचने से जान पड़ेगा कि इस प्रकार के क्रोध से स्वार्थसाधन
तो नहीं होता पर परोक्ष रूप में कुछ लोकहित-साधन अवश्य
हो जाता है। दुःख पहुँचानेवाले से हमें फिर दुःख पहुँचने
का डर न सही पर समाज को ता है। इससे उसे उचित दंड
दे देने से पहले तो उसकी शिक्षा वा भलाई हो जाती है, फिर
समाज के और लोगों का भो बचाव हो जाता है। क्रोधकर्ता
की दृष्टि तो इन परिणामों की ओर नहीं रहती है पर सृष्टि-विधान
में इस प्रकार के क्रोध की नियुक्ति है इन्हों परिणामों के लिये।
क्रोध सब मनोविकारों से फुरतीला है इसी से अवसर
पड़ने पर यह और दूसरे मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी
सहायता करता है। कभी वह दया के साथ कूदता है, कभी
घृणा के । एक क्रूर कुमार्गी किसी अनाथ अबला पर अत्याचार
कर रहा है। हमारे हृदय में उस अनाथ अबला के प्रति दया