नहीं पड़ता।
के
हृदय
में दया आदि उत्पन्न करने
में बड़ी देर लगेगी। प्रकृति किसी को इतना समय ऐसे छोटे
छोटे कामों के लिये नहीं दे सकती। भय के
द्वारा
भी प्राणी
अपनी रक्षा करता है पर समाज में इस प्रकार की दुःख-
निवृत्ति चिरस्थायिनी नहीं होती। मेरे कहने का यह अभि-
प्राय नहीं कि क्रोध के समय क्रोधकर्ता के हृदय में भावी दुःख
से बचने वा बचाने की इच्छा रहती है बल्कि चेतन प्रकृति के
भीतर क्रोध इसी लिये है।
ऊपर कहा जा चुका है कि क्रोध दुःख के कारण के परि-
ज्ञान वा साक्षात्कार से होता है। अतः एक तो जहाँ इस
ज्ञान में त्रुटि हुई वहाँ क्रोध धोखा देता है। दूसरी बात यह
है कि क्रोध जिस ओर से दुःख आता है उसी ओर देखता है
अपने धारणकर्ता की ओर नहीं। जिससे दुःख पहुँचा है वा
पहुँचेगा उसका नाश हो वा उसे दुःख पहुँचे यही क्रोध का
लक्ष्य है, क्रोध करनेवाले का फिर क्या होगा इससे उसे कुछ
सरोकार नहीं। इसी से एक तो मनोवेग ही एक दूसरे को
परिमित किया करते हैं, दूसरे विचारशक्ति भी उन पर अंकुश
रखती है। यदि क्रोध इतना उग्र हुआ कि हृदय में दुःख के
कारण की अवरोध-शक्ति के रूप और परिमाण के निश्चय,
दया, भय आदि और विकारों के संचार तथा उचित अनुचित
के विचार के लिये जगह ही न रही तो बहुत हानि पहुँच जाती
है। जैसे कोई सुने कि उसका शत्रु बीस आदमी लेकर उसे