है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे?"
उनमें से एक बड़े बूढ़े पंडित ने आशीर्वाद देकर निवेदन किया
कि "धर्मराज धर्मावतार ! यह भय तो आपके शत्रुओं को होना
चाहिए, आपसे पवित्र पुण्यात्मा के जी में ऐसा संदेह क्यों
उत्पन्न हुआ ? आप अपने पुण्य के प्रभाव का जामा पहनके
बेखटके परमेश्वर के सामने जाइए, न तो वह कहों से फटा
कटा है और न किसी जगह से मैला कुचैला है।" राजा क्रोध
करके बोला कि 'बस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न
दीजिए और इसी दम अपने घर की राह लीजिए। क्यों आप
फिर उस पर्दे को डाला चाहते हैं जो सत्य ने मेरे सामने से
हटाया है ? बुद्धि की आँखों को बंद किया चाहते हैं जिन्हें
सत्य ने खोला है ? उस पवित्र परमात्मा के सामने अन्याय
कभी नहीं ठहर सकता। मेरे पुण्य का जामा उसके आगे
निरा चीथड़ा है। यदि वह मेरे कामों पर निगाह करेगा तो
नाश हो जाऊँगा, मेरा कहीं पता भी न लगेगा।"
इतने में दूसरा पंडित बोल उठा कि "महाराज परब्रह्म
परमात्मा जो आनंदस्वरूप है उसकी दया के सागर का कब
किसी ने वारा पार पाया है, वह क्या हमारे इन छोटे छोटे
कामों पर निगाह किया करता है, वह कृपादृष्टि से सारा बेड़ा
पार लगा देता है।" राजा ने आँखें दिखला के कहा कि'महा-
राज! आप भी अपने घर को सिधारिए । आपने ईश्वर को
ऐसा अन्यायो ठहरा दिया है कि वह किसी पापी को सजा