से जाँचे। मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल सा
शरीर काँटा बनाया, ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते देते लारा
खजाना खाली कर डाला, कोई तीर्थ बाकी न रखा, कोई नदी
या तालाब नहाने से न छोड़ा, ऐसा कोई आदमी नहीं कि
जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूँ। सत्य बोला,
"ठीक, पर भोज, यह तो बतला कि तू ईश्वर की निगाह में
क्या है ? क्या हवा में बिना धूप त्रसरेणु कभी दिखलाई देते
हैं ? पर सूर्य की किरण पड़ते ही कैसे अनगिनत चमकने लग
जाते हैं ? क्या कपड़े से छाने हुए मैले पानी में किसी को
कीड़े मालूम पड़ते हैं ? पर जब खुर्दबीन शीशे को लगाकर
देखा तो एक एक बूंद में हजारों ही जीव सूझने लग जाते
हैं । जो तू उस बात के जानने से जिसे अवश्य जानना चाहिए
डरता नहीं तो आ मेरे साथ श्रा, मैं तेरी आँखें खोलूंगा।"
निदान सत्य यह कह राजा को उस बड़े मंदिर के ऊँचे
हर्वाजे पर चढ़ा ले गया जहाँ से सारा बाग दिखलाई देता था
और फिर वह उससे यों कहने लगा कि भोज, मैं अभी तेरे
पापकर्मों की कुछ भी चर्चा नहीं करता। क्योंकि तूने अपने
तई निरा निष्पाप समझ रखा है, पर यह तो बतला कि तूने
पुण्य-कर्म कौन कौन से किए हैं कि जिनसे सर्वशक्तिमान् जग-
दीश्वर संतुष्ट होगा। राजा यह सुनके अत्यंत प्रसन्न हुआ।
यह तो मानों उसके मन की बात थी। पुण्य कर्म के नाम ने
उसके चित्त को कमल सा खिला दिया। उसे निश्चय था कि