पर कुएँ खोदवाके सदाव्रत बैठा दे और दुतरफा पेड़ भी जल्द लगवा दे ।" इसी अर्से में दानाध्यक्ष ने आकर आशीर्वाद दिया और निवेदन किया-"धर्मावतार ! वह जो पाँच हजार ब्राह्मण हर साल जाड़े में रजाई पाते हैं सो डेवढ़ो पर हाजिर हैं।" राजा ने कहा-"अब पाँच के बदले पचास हजार को मिला करे और रजाई की जगह शाल दुशाले दिए जावें।" दानाध्यक्ष दुशालों के लाने वास्ते तोशेखाने में गया। इमारत के दारोगा ने आकर मुजरा किया और खबर दी कि "महा- राज ! उस बड़े मंदिर की जिसके जल्द बना देने के वास्ते सर- कार से हुक्म हुअा है आज नींव खुद गई, पत्थर गढ़े जाते हैं और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं।” महाराज ने तिउ- रियाँ बदलकर उस दारोगा को खूब घुड़का "अरे मूर्ख, वहाँ पत्थर और लोहे का क्या काम है ? बिलकुल मंदिर संगमर्मर और संगमूसा से बनाया जावे और लोहे के बदले उसमें सब जगह सोना काम में आवे जिसमें भगवान् भी उसे देखकर प्रसन्न हो जावें और मेरा नाम इस संसार में अतुल कीर्ति पावे।"
यह सुनकर सारा दरबार पुकार उठा कि "धन्य महाराज! क्यों न हो ? जब ऐसे हो तब तो ऐसे हो। आपने इस कलि- काल को सतयुग बना दिया, मानों धर्म का उद्धार करने को इस जगत् में अवतार लिया। प्राज आपसे बढ़कर और दूसरा कौन ईश्वर का प्यारा है, हमने तो पहले ही से आपको साक्षात् धर्मराज विचारा है।" व्यासजी ने कथा आरंभ की,