के बीच जल्ल-पक्षो कल्लोलें कर रहे थे, रत्नजटित सिंहासन पर
कोमल तकिए के सहारे स्वस्थचित्त बैठा हुआ वह महलों की
सुनहरी कलसियाँ लगी हुई संगमर्मर की गुमजियों के पोछे से
उदय होता हुआ पूर्णिमा का चंद्रमा देख रहा था और निर्जन
एकांत होने के कारण मन ही मन में सोचता था कि अहो !
मैंने अपने कुल को ऐमा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों
का विकास होता है। क्या मनुष्य और क्या जीव जंतु मैंने
अपना सारा जन्म इन्हीं का भला करने में गँवाया और व्रत
उपवास करते करते फूल से शरीर को काँटा बनाया। जितना
मैंने दान किया उतना तो कभी किसी के ध्यान में भी न पाया
होगा । जो मैं ही नहीं तो फिर और कौन हो सकता है ?
मुझे अपने ईश्वर पर दावा है, वह अवश्य मुझे अच्छी गति
देगा। ऐसा कब हो सकता है कि मुझे कुछ दोष लगे?
इसी अर्से में चोबदार ने पुकारा-"चौधरी इंद्रदत्त निगाह
रूबरू !” श्रीमहाराज सलामत भोज ने आँख उठाई, दीवान ने
साष्टांग दंडवत की, फिर सम्मुख जा हाथ जोड़ यों निवेदन
किया-"पृथ्वीनाथ, सड़क पर वे कुएँ जिनके वास्ते आपने
हुक्म दिया था बनकर तैयार हो गए हैं और आम के बाग भी
सब जगह लग गए। जो पानी पीता है आपको असीस देता
है और जो उन पेड़ों की छाया में विश्राम करता आपकी बढ़ती
दौलत मनाता है।" राजा अति प्रसन्न हुआ और बोला कि
"सुन मेरी अमलदारी भर में जहाँ जहाँ सड़कें हैं कोस कोस