पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/२२

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पहुँचा देंगे। सज्जनों का संग करने से सर्वथा हमारा उत्कर्ष

ही होगा।

गुणी जनन के संग में, लहत बड़ाई नीच ।

सुमन संग ज्यों चढ़त है, सूत देहरा बीच ।।

मित्र-संग्रह के विषय में बहुधा लोग नदी-नाव संयोग की प्रथा पर चलते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जो कोई हमें मिल जाय उसके साथ सुजनता और सभ्यता के साथ बर्ताव करना हितकारी है परंतु सभी को सच्चा मित्र समझ लेना उचित नहीं है। कोई हमारे पड़ोस में रहता है, कोई समव्यवसायी है अथवा कोई प्रवास का साथी है तो केवल ऐसे क्षुद्र कारण वश ही उसे अपना मित्र कहना बड़ी भूल है। प्लूटार्क का कथन है कि "ये सब मित्रता की मूर्तियाँ और खिलाने हैं, सच्चे मित्र नहीं।"

दर्शने स्पर्शने वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।

यत्र द्रवत्यंतरंगं स स्नेह इति कथ्यते ॥ -सुभाषित

अर्थात् जहाँ दरस, परस, श्रवण वा कथन से अंतःकरण द्रवीभूत हो जाता है, वही स्नेह है।

अपना शत्रु कितना ही क्षुद्र क्यों न हो, वह बड़ी से बड़ी हानि पहुँचा सकता है। उसी तरह जिसने दूसरे पर प्रेम किया है उसी के हृदय में सब के लिये प्रेम उपजेगा, ये दोनों बातें चिंतनीय हैं। हर एक व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण अवश्य होता है। स्मिथ ने लिखा है-"मैंने लोगों को यह कहते

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