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इधर उधर देखने लगा। न तो कहाँ वह रमणीक स्थान था,न कहीं वह स्त्री थी, केवल मैं अपनी शय्या पर पड़ा था।
मैं इस विचित्र स्वप्न पर विचार करने लगा। अंत में मैंने यही सारांश निकाला कि वस्तुतः इस संसार में मनुष्य के लिये धैर्यपूर्वक
अपनी आपत्तियों का सहन करना, कभी किसी अन्य पुरुष की
दशा को ईर्ष्या की दृष्टि से न देखना ही सुख का मूल है।
——केशवप्रसाद सिंह