मैदान में पहुँची, समस्त नेत्र उसकी ओर आकर्षित हो गए।
वह धीरे धीरे आपत्तियों के पर्वत पर चढ़ गई । उसका उस
ढेर पर चढ़ना था कि वह ढेर पहले की अपेक्षा तिगुना कम
दिखाई देने लगा। न जाने इसमें क्या भेद था कि जितनी
आपत्तियाँ थीं, सभी कठोरता-रहित और कोमल दिखाई पड़ने
लगी। मैं अति व्यग्र हो इस देवी का नाम पूछने लगा। इस
पर एक दयावान ने झिड़ककर उत्तर दिया, रे मूर्ख ! तू क्या
इनसे परिचित नहीं है ? इन्हीं का नाम धीरता देवी है। अब
ये देवी प्रत्येक मनुष्य को उसका पूर्व भाग बाँटने लगी और
साथ ही साथ सबको समझाती जाती थीं कि इस संसार में
किस प्रकार अपनी अपनी आपत्तियों को धैर्यपूर्वक सहन
करना उचित है। जो मनुष्य उनकी वक्तृता सुनता, वह संतुष्ट
हो वहाँ से जाता दिखाई देता था। मैं इस रूपक के देखने में
ऐसा निमग्न था कि सारी मनुष्यजाति अपनो अपना भाग ले
अपने अपने निवास-स्थान को सिधारी, पर मैं वहीं ज्यों का
त्यों खड़ा सब लीला देखता रहा, यहाँ तक कि जब उस स्त्री के
पास जाने और अपना विपत्ति-भाग लेने की मेरी बारी आई
तब भी मैं अपने स्थान से नहीं टसका। इस पर एक आदमी
मेरी ओर आता दिखाई पड़ा । मेरे पास आते ही पहले तो वह
मुझसे कहने लगा कि "तुम वहाँ क्यों नहीं जाते ?" इस पर
मैं कुछ उत्तर दिया ही चाहता था कि ऊँ ऊँ ऊँ करके उठ
बैठा और नींद खुल गई। नींद खुलते ही नेत्र फाड़ फाड़कर
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