यह बात स्थिर और निर्विवाद है कि श्रद्धा का विषय किसी न किसी रूप में सात्विक-शीलता ही है ।अतः करुणा और सात्विकता का संबंध इस बात से और भी प्रमाणित होता है कि किसी पुरुष को दूसरे पर करुणा करते देख तीसरे को करुणा करनेवाले पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। किसी प्राणी में और किसी मनोवेग को देख श्रद्धा नहों उत्पन्न होती। किसी को क्रोध, भय, ईर्षा, घृणा, आनंद आदि करते देख लोग उस पर श्रद्धा नहीं कर बैठते। यह दिखलाया ही जा चुका है कि प्राणियों की प्रादि-अंतःकरण-वृत्ति रागात्मक है। अतः मनो- वेगों में से जो श्रद्धा का विषय हो वही सात्विकता का प्रादि- संस्थापक ठहरा। दूसरी बात यह भी ध्यान देने की है कि मनुष्य का आचरण मनोवेग वा प्रवृत्ति ही का फल है। बुद्धि दो वस्तुओं के रूपों को अलग अलग दिखला देगी, यह मनुष्य के मनोवेग पर निर्भर है कि वह उनमें से किसी एक को चुनकर कार्य में प्रवृत्त हो । कुछ दार्शनिकों ने तो यहाँ तक दिखलाया है कि हमारे निश्चयों का अंतिम प्राधार अनुभव वा कल्पना की तीव्रता ही है, बुद्धि द्वारा स्थिर की हुई कोई वस्तु नहीं। गीली लकड़ी को आग पर रखने से हमने एक बार धुआँ उठते देखा, दस बार देखा, हजार बार देखा अतः हमारी कल्पना में यह व्यापार जम गया और हमने निश्चय किया कि गोली लकड़ी आग पर रखने से धुआँ होता है। यदि विचारकर देखा जाय तो स्मृति, अनुमान, बुद्धि प्रादि अंतःकरण की सारी वृत्तियाँ केवल मनो-
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