उससे भिन्न प्राणी संसार है। जिन कम्मों से दूसरे के
वास्तविक सुख का साधन और दुःख की निवृत्ति हो वे शुभ
और सात्विक हैं तथा जिस अंतःकरण-वृत्ति से इन कम्मों में
प्रवृत्ति हो वह सात्त्विक है। कृपा वा प्रसन्नता से भी दूसरों
के सुख की योजना की जाती है। पर एक तो कृपा वा प्रस-
नता में आत्मभाव छिपा रहता है और उसकी प्रेरणा से पहुँ-
चाया हुआ सुख एक प्रकार का प्रतिकार है। दूसरी बात
यह है कि नवीन सुख की योजना की अपेक्षा प्राप्त दुःख की
निवृत्ति की आवश्यकता अत्यंत अधिक है
दूसरे के उपस्थित दुःख से उत्पन्न दुःख का अनुभव अपनी
तीव्रता के कारण मनोवेगों की श्रेणी में माना जाता है पर
अपने आचरण द्वारा दूसरे के संभाव्य दुःख का ध्यान वा
जिसके द्वारा, हम ऐसी बातों से बचते हैं जिनसे
अकारण दूसरे को दुःख पहुँचे, शील वा साधारण सद्वृत्ति के
अंतर्गत समझा जाता है। बोलचाल की भाषा में तो "शील"
शब्द से चित्त की कोमलता वा मुरौवत ही का भाव समझा
जाता है जैसे 'उनकी आंखों में शील नहीं है, 'शील तोड़ना
अच्छा नहीं ।' दूसरों का दुःख दूर करना और दूसरों को
दुःख न पहुँचाना इन दोनों बातों का निर्वाह करनेवाला नियम
न पालने का दोषी हो सकता है पर दुःशीलता वा दुर्भाव का
नहीं। ऐसा मनुष्य झूठ बोल सकता है पर ऐसा नहीं जिससे
किसी का कोई काम बिगड़े वा जी दुखे । यदि वह कभी बड़ों