हम अज्ञात-कुल-शील मनुष्य के दुःख को देखकर भी दुखी
होते हैं। किसी दुखो मनुष्य को सामने देख हम अपना दुखी
होना तब तक के लिये बंद नहीं रखते जब तक कि यह न
मालूम हो जाय कि वह कौन है, कहाँ रहता है और कैसा
यह और बात है कि यह जानकर कि जिसे पीड़ा पहुँच
रही है उसने कोई भारी अपराध वा अत्याचार किया है, हमारी
दया दूर वा कम हो जाय। ऐसे अवसर पर हमारे ध्यान के
सामने वह अपराध वा अत्याचार आ जाता है और उस अप-
राधी वा अत्याचारी का वर्तमान क्लेश हमारे क्रोध की तुष्टि
का साधक हो जाता है। सारांश यह कि करुणा की प्राप्ति
के लिये पात्र में दुःख के अतिरिक्त और किसी विशेषता की
अपेक्षा नहीं। पर आनंदित हम ऐसे ही आदमी के सुख को
देखकर होते हैं जो या तो हमारा सुहृद या संबंधी हो अथवा
अत्यंत सज्जन, शीलवान वा चरित्रवान होने के कारण समाज
का मित्र वा हितू हो। यों ही किसी अज्ञात व्यक्ति का लाभ
वा कल्याण सुनने से हमारे हृदय में किसी प्रकार के आनंद का
उदय नहीं होता। इससे प्रकट है कि दूसरों के दुःख से दुखी
होने का नियम बहुत व्यापक है और दूसरों के सुख से सुखी
होने का नियम उसकी अपेक्षा परिमित है। इसके अतिरिक्त
दूसरों को सुखी देखकर जो आनंद होता है उसका न तो कोई
अलग नाम रखा गया है और न उसमें वेग या क्रियोत्पादक
गुण है। पर दूसरों के दुःख के परिज्ञान से जो दुःख होता
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