मनुष्य की सामाजिक स्थिति के विकास में साहित्य का प्रधान
योग रहता है।
यदि संसार के इतिहास की ओर हम ध्यान देते हैं तो
हमें यह भली भाँति विदित होता है कि साहित्य ने मनुष्यों की
सामाजिक स्थिति में कैसा परिवर्तन कर दिया है। पाश्चात्य
देशों में एक समय धर्म-संबंधी शक्ति पोप के हाथ में आ गई
थी। माध्यमिक काल में इस शक्ति का बड़ा दुरुपयोग होने
लगा। अतएव जब पुनरुत्थान ने वर्तमान काल का सूत्रपात किया,
यूरोपीय मस्तिष्क स्वतंत्रता-देवी की आराधना में रत हुआ,
पहला काम जो उसने किया वह धर्म के विरुद्ध विद्रोह खड़ा
करना था। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोपीय कार्यक्षेत्र
से धर्म का प्रभाव हटा और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की लालसा
बढ़ी। यह कौन नहीं जानता कि फ्रांस की राज्य-क्रांति का
सूत्रपात रूसो और वालटेयर के लेखों ने किया और इटली के
पुनरुत्थान का बीज मेजिनी के लेखों ने बोया। भारतवर्ष में
भी साहित्य का प्रभाव इसकी अवस्था पर कम नहीं पड़ा।
यहाँ की प्राकृतिक अवस्था के कारण सांसारिक चिंता ने लोगों
को अधिक न प्रसा। उनका विशेष ज्ञान धर्म की ओर रहा।
जब तब उसमें अव्यवस्था और अनीति की वृद्धि हुई, नए
विचारों, नई संस्थाओं की सृष्टि हुई। बौद्ध धर्म और आर्य-
समाज का प्राबल्य और प्रचार ऐसी ही स्थिति के बीच हुआ।
इसलाम और हिंदू-धर्म जब परस्पर पड़ोसी हुए तब दोनों में से