गाया ही करते हैं। साँप, अजगर से रेंगनेवाले प्राणी भी ऊपर चढ़ जाते हैं। बेल और लताएँ तो वृक्षों से लिपटती हुई मानों प्रेमालिंगन का सुख उठा रही हैं और ऊपर तक बढ़ी चली जाती हैं। इनकी इतनी अधिक जातियाँ उष्ण प्रदेशों में होती हैं जितनी अन्य देशों में देखने में नहीं आती। दक्षिण के अरण्यों का वर्णन जो महाकवि भवभूति ने किया है वह उष्ण प्रदेशों की वन-शोभा का उत्तम दर्शक है।
ये गिरि सोय जहाँ मधुरी मदमत्त मयूरनि की धुनि छाई । या बन में कमनीय मृगानि की लोल कलोलनि डोलति भाई ॥ सोहै सरित्तट धारि घनी जलवृक्षन की नवनील निकाई । मंजुल मंजुलतानि की चारु चुभीली जहाँ सुखमा सरसाई ।।
लसत सघन श्यामल विपिन, जहँ हरषावत अंग ।
करि कलोल कलरव करत, नाना भाँति विहंग ।।
फल-भारन सो झालरे, हरे वृच्छ झुकि जाँहि ।
झिलमिलाति झाँई सुतिन, गोदावरि जल माँहि ॥
जहाँ बाँस-पुंज कंज कलित कुटीर माँहि
जहाँ बाँस-पुज कज कलित कुटीर माँहि
घोरत उलुक भीर घोर घुधियायकै ।
तासु धुनि प्रतिधुनि सुनि काककुल मूक
भय-बस लेत ना उड़ान कहुँ धायकैं॥
इत उत डोलत सु बोलत हैं मोर, तिन
सोर सन सरप दरप बिसरायकैं