पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/७६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३८) गया परंतु सन् १८६४ में अपना माता के साथ यो हाँ ये जगवाय जो फो गए त्यों ही इनका पढ़ना लिखना भी रट गया। परंतु फपिता को मार विशेष रचि बढ़ गई। जिस समय ये जगन्नाय जी से लौट आप तो इनके चिच में देश-हित का अंकुर प्रस्फुरित हुमा । इनको निश्चय हो गया कि पाचात्य शिक्षा के बिना कुछ नहीं हो सकता इसलिये स्वयं पठित विपर्यों का अभ्यास करने लगे पार अपने घर पर एक स्कूल मी पोल दिया जिसमें उस महल के बहुत से लड़के पढ़ने माने लगे। समय पाफर यह स्कूल चीखंभा स्कूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और पाज कल यही स्कूल हरिश्चंद्र स्थल कहलाता है । इसके दूसरे वर्ष सन् १८६८ में इन्होंने "कविवचनसुधा" को जन्म दिया जिससे एक काशी के क्या जहां तहां के सब भाषा-कषियों की कविता प्रकाशित होने का द्वार खुल गया और जिसे पढ़ते पढ़ातं कई पक हिंदी-प्रेमी अच्छे लेखक हो गए। सन् १८७० में इन्हें मानरेरी मजिस्ट्रेट का पद मिला परंतु कुछ दिन बाद आपने स्वयं उस पद को छोड़ दिया । सन् १८७३ में आपने हरिदचंद्र मेग- ज़ोन प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिया परंतु केवल आठ अंक निकल के वह बंद कर दिया गया। वैसे तो वावू हरिदचंद्र हिंदी गद्य पद्य की रचना सन् १८६४ से करने लगे थे परंतु सन् १८७३ में इनकी लेखनी खूब परिमार्जित हो चुको थी इसलिये अपने लेखन का आरंभ काल इन्होंने सन् १८७३ से माना है। इस वर्ष इन्होंने पेनीरीडिंग (Penny Realing) नाम का समाज स्थापित किया जिसमें हिंदी के अच्छे अच्छे लेखक लेख लिख लिख कर जाते अथवा समस्या-पूर्ति करके सुनाते थे। इसी वर्ष में इन्होंने कपूर मंजरी और चंद्रावली नाटकों की रचना की।