( २३ , चतुरा पौर दूरदर्शिनी माता ने इन्हें अंगरेजी पढ़ने की प्रेरणा की। माता की माशा मान कर ये एक मिशन-स्कूल में भरती हो गए। वहां इन्होंने एंट्रेंस तक शिक्षा पाई और बाइबिल की परीक्षा में कई बार इनाम भी पाया । पर इससे यह न समझना चाहिए कि इनकी धार्मिक श्रद्धा में भी कुछ बट्टा लगा। ये अपने हिदू धर्म पर हृदय से थे और इसी कारण से उस स्कूल के पादरो हेड मास्टर से याद विवाद हो उठने पर इन्होंने स्कूल छोड़ दिया। मिशन स्कूल छोड़ कर ये पुनः संस्कृत का अध्ययन करने लगे। व्याकरण और साहित्य का खूब मनन किया । इसी बीच में ये जमुना मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए परंतु अपने धर्म के पटल पक्ष- पाती होने के कारण इन्हें यह अध्यापकत्व भी छोड़ना पड़ा। स्वतंत्रता की धुन सवार होने के कारण ये बहुत दिनों तक वेकार बैठे रहे परंतु इसी बीच में जब इनका विवाह हो गया तब कमाने को फ़िक हुई और कोई अच्छा व्यापार करने की इच्छा से ये कलकत्ता चले गए परन्तु शोघही लौट भी आए । कलकत्ते से पाकर ये पहिले की तरह हाथ पर हाथ रख कर बैठे न रहे वरन् अपने अमूल्य समय को संस्कृत-साहित्य के अध्ययन और हिंदी-साहित्य की सेवा में बिताने लगे। उस समय के समस्त साप्ता- हिक पर मासिक हिंदी-पत्रों में लेख लिख लिख कर भेजने लगे। इसी समय प्रयाग के कई शिक्षित युवकों ने सन् १८७७ ई० में हिंदीप्रवर्द्धिनो नाम की एक सभा स्थापित की और निश्चय किया कि प्रति सभासद से पांच पाँच रुपया चंदा इकट्ठा करके एक मासिक पत्र प्रकाशित किया जाय, तदनुसार "हिंदी-प्रदीप" का जन्म हुआ पौर भट्ट जी उसके संपादक हुए । जब "हिंदी-प्रदीप" का प्रकाश हुआ उन्हीं दिनों में सरकार ने प्रेस एक पास किया जिससे भयभीत होकर "हिंदी प्रदीप' के अन्य हितैपियों ने तो
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