(२०.) भारतयाय भागों के समुदाय के व्याकरण" पर एक लेन लिखा- जो कि बंगाल पशियाटिक सोसायटी की परिका में प्रकाशित हुआ। इस लेन से देश देशांतर में आपके पांडित्य का प्रयास फैल गया। उस समय यहुनर लोगों का पेसा विश्वास था कि हिंदी संस्कृत को नहीं घरन् अनार्य भाषामों को शास्त्रा है परंतु हमा डाकुर महाशय ने संस्कृत पार प्रारत के भिन्न भिन्न व्याकरणों के नियमों पर साधारण योल चाल को तथा कविता की हिंदी के शब्दों को मिलान करके यह सप्रमाण सिद्ध कर दिखाया कि हिंदी भाषा संस्कृत पार प्राकृत से निकली है, इसका अनार्य भाषामों से कोई संबंध नहीं है। डाकर हर्नली सन् १८७३ में इंगलैंड को चले गए और वहां पाप सन् ७७ तक उक्त व्याकरण कीरचनामें लगे रहे। सन् १८८२ में इस व्याकरण के प्रकाशित होते ही आप एक बड़े भारी भाषा- तत्वज्ञ पंडित माने जाने लगे । सन् ८२ में (Institute de France) इंस्टीट्यूट डी फ्रांस नामी पेरिस की एक सभा ने आप को स्वर्ग पदक अर्पण किया जो कि उस सभा से प्रतिवर्षे सर्वोत्तम ग्रंथ के लिये दिया जाता था। सन् १८७८ में डाकुर साहव पुनः भारतवर्ष को लौट आए और कलकत्त के केथेडिल मिशन कालेज के प्रधान प्रिंसिपल नियत हुए। सन् १८८५ में आपने डाकृर प्रियर्सन के साथ विहारी भाषा का कोष सम्पादित करना प्रारम्भ किया । पर शोक है कि वह पूराने हो सका । सन् १८८६ में प्रापका ध्यान चंदबरदाई कृत पृथ्वोपळ रासी की तरफ आकर्षित हुमा । आपने २६ वें प्रस्ताव से ३४ वे प्रस्ताव तक उसे सम्मादित करके प्रकाशित भी किया और २७ समय का अनुवाद भी छपवाया। परंतु जब आपको इस ग्रंथ के चंदवरदाई कृत होने में संदेह हुआ तब इस कार्य को बंद कर दिया। व 2
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