( १८ ) शिक्षा-विभाग से घनिष्ठ संबंध होने पर इन्होंने संस्कृत पौर हिंदी भाषा में अच्छी अच्छी पुस्तकों की रचना की जिनमें से बहुतेरो पुस्तकें अब तक पंजाब युनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती हैं। इन्होंने हिंदी में शान-प्रदायिनी-पत्रिका निकाली थी पी सोशलरिफ़ार्म संबंधी कई पत्र निकाले और विधवा-विवाह पर एक पुस्तक रची थी। ये अपने अनुष्ठान के बड़े हढ़ और पूरे परो- पकारी पुरुप थे। इन्होंने गरीबों को मोपधि देने के लिये निज के कई दवाखाने खोले थे, तथा ये पर भी जनसमुदाय के उपकार के कामों में सदा दत्तचित्त रहते थे। परिश्रमो तो इतने थे कि वृक्ष अवस्था में भी नवीन विषयों को धोखते समय पाठशाला में पढ़ने याले बच्चों का सा परिश्रम करते थे। इनका सिद्धांत यह था कि शान और विद्या के समुद्र का पारावार नहीं है इसलिये मनुष्य को यावजीवन विद्योपार्जन में परिश्रम करना चाहिए। सन् १८८० ई० में इन्होंने सरकार से पेंशन ले ली पीर रत. लाम रियासत के दीयान छुप, पर यहां से भी शीघ्र चले पाए खंड के पास एक गांव बसा कर उसमें रहने लगे। इस गांव का नाम इन्हों ने ग्रह्मगांव रक्या था क्योंकि इसमें अधिकतर ग्राह्मण ही पसाए गए थे। सन् १८९०१० में इनका परलोक पास पार is
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