(१२) व्ययसाय इनकी कचि के अनुकूल न था इसलिये एक हा वर्ष इन्होंने पद काम छोड़ दिया पार मेण्टको लौट गए। बलया शांत हो गया था। प्रस्तु, इन्होंने फिर एक मदरसे में नौकरी करत पार पानंद से समय बिताने लगे। प्रयच अपने निज के कां दे लेन के व्ययसाय मी इन्होंने चलाए पार चालीस वर्ष की अयस्य तक इतना धन पैदा कर लिया कि बुढ़ार में अपने आप येठेघ सकें, किसी का आश्रित न होना पड़े। चालीस से पैतालिस यप को अयस्था अंतर्गत पंडित गौरी दत्त के जीवन में पड़ा हर फेर गया। सहसा इनके जी में या धात समा गई कि स्वार्थ संचय तो बहुत किया। अब कुछ परमार या परलोक-हित कार्य करना चाहिए। यह विचार कर इन्होंने स्कूल को सेवा वृत्ति छोड़ दी और अपनी मातृभाषा नागरी की सेव करने में दत्तचित्त हुए । पहिले तो अपनी सब जायदाद देवनागर प्रचार के लिये समर्पण कर उसकी रजिस्टरी करा दी, फिर देशाटन करना प्रारंभ किया और गाँव गाँव नगर नगर देवनागरी प्रचार के लाभ समझाते हुए व्याख्यान देते फिरने लगे जिसका परिणाम यह हुआ कि कई जगह देवनागरी के स्कूल तक खुल गए और बहुत से लोगों का चित्त इस ओर आकर्षित हो गया। पंडित गौरीदत्त ने नागरी प्रचार के लिये शेष जीवन में तन मन से चेष्टा की । इन्हों ने नागरी प्रचार के लिये कई एक ऐसे खेल या गोरखधंधे बनाए जिन्हें देखते ही आदमी की तबीयत उनमें उलझे और नागरी अक्षरों का उसे ज्ञान हो जाय । इन्होंने स्त्री शिक्षा पर तीन किताबें लिखों जिन्हें गवर्नमेंट ने भी पसंद किया और इन्हें इनाम भी दिया। इनका बनाया हिंदी भाषा का एक कोप भी है जो अपने ढंग का अच्छा है। इन्होंने इस विषय में जो सब से बड़ा काम किया यह मेरट का नागरी स्कूल है। यह स्कूल अध भी
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