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करने के काम पर नौकर हुए। तीन वर्ष के बाद इनका वेतन १५०) मासिक हुआ और ये सदरबोर्ड के दफ़्तर में नियत हुए। इसके दो वर्ष पीछे सन् १८५५ ई॰ में इन्हें इटावे की तहसीलदारी मिली। उन दिनों इटावे में ह्यूम साहब कलेक्टर थे। वे इनके गुणों पर मोहित होकर इनसे अत्यंत प्रसन्न थे। अस्तु, उनकी सहायता से राजा साहिब ने इटावे में ह्यूम हाई स्कूल स्थापित किया जो कि अबतक विद्यमान है और जिससे प्रति वर्ष अच्छे अच्छे योग्य विद्यार्थी पास होते हैं। इनकी कार्य प्रणाली में अत्यंत प्रसन्न होकर ह्यूम साहब ने गवर्नमेंट को इनकी बड़ी तारीफ़ लिखी जिससे गवर्नमेंट ने इन्हें डिप्टी कलेक्टर बना दिया और बांदे को बदली कर दी। यह सन् १८५६-५७ की बात है।
राजा साहिब बांदे से छुटी लेकर अपने घर आगरे को जा रहे थे कि उसी समय सिपाहियों का बलवा हो गया। जय आप इटावे के पास पहुँचे तो सुना कि यहां पर भी बड़ा उपद्रव मचा हुआ है। बस ये फ़ौरन ह्यूम साहिब के पास पहुँचे और उनके कहने के अनुसार बहुत से अँगरेज़ी बालकों और मेमों को सकुशल आगरे के क़िले में पहुंचा दिया। घर पर पहुँच कर इन्होंने राजपूतों का एक झुंड बटोरा और उन्हें लेकर ये ह्यूम साहब की रक्षा को इटावे को जाने वाले थे कि तब तक वे स्वयं इनके घर पर आ गए। इन्होंने उनको अपनी ही रक्षा में रखा और जब दिल्ली को अधीन करके सरकारी फ़ौज ने इटावे पर धावा किया तो इन्होंने स्वयं उस फ़ौज का साथ दिया और वे लड़ाइयों में सम्मिलित रहे।
इस राजभक्ति के लिए इन्हें सरकार ने रुरका का इलाक़ा माफ़ी देना चाहा परंतु इन्होंने नम्रतापूर्वक यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि हमने जो कुछ किया जातीय-धर्म के अनुसार किया। इसमें पुरस्कार की क्या आवश्यकता? तब इन्हे पहिले दर्जे का डिप्टी
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