पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/२०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(183) दापसिंह का जन्म हुमा । यद्यपि इनके पिता वैष्ण्य और सिक धे परंतु उस समय स्यामो दयानंद सरस्वती की निकै इनके हाथों लग गई थी और ये उन्हें पड़े अनुराग से पढ़ते । इसका प्रभाव वालक गदाधरसिंह पर यहुत पड़ा। इनको बता मो लिखो पढ़ी थी। याल्यावस्था में शिक्षा पर ही पर माता या एक मास्टर द्वारा हुई। इन मास्टर साहब को तुलसीकृत पनायब पढ़ने का बड़ा अनुराग था। चालक गदाधरसिंह भी दो घंटे इनके साथ रामायण पढ़त। पिता की इच्छा थी कि हमारा सुत्र सिपाहो हो । प्रतपय १७ वर्ष की अवस्था में पैट्रेस तक पढ़ र टाकुर गदाधरसिंह अपने पिता की पल्टन में भरती हो गए। सेवा के पहिले वर्ग ( १८८८ ० ) में ये ब्रह्मा की लड़ाई पर गए । यहाँ इन्होंने सेनासंबंधी सब प्रकार का काम किया। यहां से टोटने पर ये अपनी सेना के दफ्तर में काम करने लगे । सन् १८९४ ईसवी में जब बंगाल की पल्टनों में जातनामा हुआ तब ये सोलहयों पजप्त पल्टन में बदल गए और वहां स्कूलमास्टरी का काम करने सन् १८९६ ईसवी में ये सातयों राजपूत पल्टन में बदले गए । सन् १९००-०१ में अपनी पल्टन के साथ चीन की लड़ाई पर गए जिसका मनोहर वर्णन इन्होंने अपनी "चीन में तेरह मास" नाम को पुस्तक में किया है। फिर महाराज एडवर्ड के तिलकोत्सव के समय इन्हें इंगलैंड जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस यात्रा का वर्णन इन्होंने “हमारी पद्धयर्ड तिलकयात्रा" नाम की पुस्तक में किया है। सेनाविभाग में २० वर्ष सेवा करके इन्होंने अनपटाद्ध- लिस में तबदीली करालो और अब संयुक्त प्रदेश के डाक विभाग में काम करते हैं । सेना में इनका पद सूबेदार का था। स्वामी दयानंद सरस्वती के ग्रंथों को इन्होंने खूब पढ़ा है और उनके अनुयायी हैं। इनकी दो बहिन है ये भी पढ़ी लिखी टगे। 16