पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/२

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समर्पण

प्यारे मित्र!

इधर यह ग्रन्थ समाप्त हुमा, उधर तुम्हारा बिछोह हुआ, इस अवस्था में हम दोनों ने मिल कर जो बहुत वर्षों तक कई उद्योगों में एक दूसरे का साथ दिया उसका स्मरण चिरस्थायी करने का इससे बढ़ कर और क्या उपाय है कि यह ग्रंथ मैं तुम्हारे अर्पण करूँ। एक मित्र को यह स्नेहमयी भेंट है। इसे सादर स्वीकार करना और इस नाते दूर होने पर मैत्री के पाश को ढीला न होने देना । तुम्हारा हमारा स्नेह सदा एक सा बना रहेगा यह तो निश्चय ही है पर आशा है कि यह भेंट उसे और भी दृढ़ करने में सहायक होगी।

तुम्हारा स्नेही,
श्यामसुन्दर दास।