और शरीर दुखी रहने पर भी बावू राधाकृष्णदास कई जगह गए थे। ( १०७ ) बाबू राधारप्यदास हिंदी-साहित्याकाश के पक शुभ नक्षत्र थे। इन्होंने हिंदो-साहित्य को जैसी फुछ सेवा को किसो साहित्य-सेवी को अविदित नहीं है। इन्होंने जितनी पुस्तकों की रचना की सब एक से एक उत्तम और प्रभाव-जनक हैं । पुस्तक रचना के लिये इन्हें बान् हरिश्चंद्र जी ने स्वयं उत्साह दिलाया था वरन् अपने सामने हो इनसे लिखवाना भी प्रारंभ करा दिया था। इनकी सबसे पहिली रचना "दुःखिनी वाला" है। इसके बाद "निस्सहाय हिंदू" "महारानी पद्मावती" "प्रताप नाटक प्रादि २५ पुस्तकें इन्होने रचौं । गद्य लेख लिखने के सिवाय आप काव्य में भी अच्छी पैठ रखते थे और स्वयं सरस पार भायपूर्ण कविता करते थे। इन्होंने कविता में कोई पृथक ग्रंथ तो नहीं रचा परंतु स्वरचित गद्य पुस्तकों में यथासमय जो कहीं कहीं पर पद्य दिए हैं उन्होंसे इनकी काव्य-कुशलता का पूर्ण परिचय मिलता है। काशी नागरोप्रचारिणी सभा के नेताओं में बाबू राधाकृष्णदास मुस्य थे। सन् १८९४ ईसवी में जबकि इस सभा को शिशु अवस्था थी सबसे पहिले आप हो उसमें सम्मिलित हुए थे और अपने अंतिम समय तक सभा की पूर्ण रूप से सहायता करते रहे। सभा-भवन के वनवाने में इन्होंने बड़ा उत्साह दिखलाया था और उसके लिये बहुन कुछ उद्योग किया था। सभा के स्थायी कोश के लिये चंदा उगाहने को सभा के डेपुटेशन के साथ घर के हज़ारों काम छोड़ कर दफ्तरों में नागरी लिपि जारी कराने के लिये जो डेपुटेशन संयुक्त प्रांत के छोटे लाट के पास गया था उसमें भी आपने बहुत उद्योग किया था। नागरीप्रचारिणी सभा में जब कोई हाकिम अफ़सर पाता था तब उसके लिये आप ही कविता में एड्रेस बना कर देते थे। सभा पर इनका इतना स्नेह था कि मरते समय भी ये उसे नहीं भूले।
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