( १०४ ) निज़ामाबाद में यात्रा सुमेरसिंह नामक सिक्ख संप्रदाय के एक साधु रहते थे। वे एक अच्छे विद्वान् पुरुष और हिंदी भाषा के कवि थे । एक दिन बाबा जी के यहां कवि और विद्वान लोगों की एकसभा हुई। उसमें हमारे चरित्र-नायक भी पधारे और इन्होंने दो एक प्रश्नों का ऐसी उत्तम रीति से उत्तर दिया कि जिससे वाबाजी इन पर बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार बाबा जी के कृपापात्र होने पर इन्हें उनके पुस्तकालय के भाषा-ग्रंथ देखने का अच्छा अवसर हाथ लगा। इसी समय वाबू हरिश्चंद्र जो का कवि-वचन-सुधा भी प्रकाशित होने लगा था। अस्तु, बाबा जी के यहां भापा- साहित्य संबंधी भिन्न भिन्न विषयों के ग्रंथ मौर समाचार पत्रों में सामयिक साहित्य के पठन पाठन से आपके हृदय में भी ग्रंथ- रचना का उत्साह और मातृभापा प्रति अनन्य अनुराग उमड़ माया। पंडित अयोध्यासिंह जी ने मदरसों के डिप्टी स्पेकर बाबू श्याम मनोहर दास की मानानुसार पहिले पहिल काशी-पत्रिका में प्रकाशित वेनिस का बांका पौर रिपवान विंकल का उर्दू से हिंदी में अनुवाद किया । उक्त पत्रिका के कुछ स्फुट निबंधों का भी प्राप ने हिंदी-अनुवाद किया और उनके संग्रह का "नाति-निबंध" नाम रक्सा । तदनंतर गुलज़ार दयिस्ता का भाषानुवाद करके विनार वाटिका नाम रक्सा पार गुलिस्ता के पाठवें वाव का "नीति उपदेश कुसुम" नाम से अनुवाद किया। पेनिस के वांके की पंडित प्रतापनारायण ने अपने पर ग्रामय में अच्छी समालोचना की थी। उसे पढ़ कर मातृभाषा के प्रेमी आज़मगढ़ के कानूनगो या धनपत सिंह का ध्यान लेनको तक गया। उन्होंने इन्हें कानूनगोई को परीक्षा पास कर लेने की सलाह दी। तदनुसार इन्होंने सन् १८८९० में उक्त परीक्षा पारस
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